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अतः अज्ञानके अभावमें अकर्ता ही है ।'
अज्ञानी जीव भक्तिको ही सर्वस्व मान तल्लीन हो जाते हैं, क्योंकि उससे आगे उन्हें सूझता ही नहीं । परन्तु ज्ञानी जीव जब श्रेणि चढ़नेको समर्थ नहीं होता तब अन्यत्र - जो मोक्षमार्गके पात्र नहीं उनमें, राग न हो इस भावसे तथा तीव्र रागज्वरके अपगमकी भावनासे श्री अरिहन्तादि देवकी भक्ति करता है। श्री अरिहन्तके गुणोंमें अनुराग होना यही तो भक्ति है । अरिहन्तके गुण हैं - वीतरागता, सर्वज्ञता तथा मोक्षमार्गका नेतापना । इनमें अनुराग होनेसे कौन-सा विषय पुष्ट हुआ ? यदि इन गुणोंमें प्रेम हुआ तो उन्हींकी प्राप्तिके अर्थ तो प्रयास है। सम्यग्दर्शन होनेके बाद चारित्रमोहका चाहे तीव्र उदय हो चाहे मन्द उदय हो, उसकी जो प्रवृत्ति होती है उसमें कर्तृत्व बुद्धि नहीं रहती । अतएव श्री दौलतरामजी ने एक भजनमें लिखा है कि
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'जे भव- हेतु अबुधिके तस करत बन्धकी छटाछटी ।'
अभिप्रायके बिना जो क्रिया होती है वह बन्धकी जनक नहीं । यदि अभिप्रायके अभाव में भी क्रिया बन्धजनक होने लगे तब यथाख्यातचारित्र होकर भी अबन्ध नही हो सकता, अतः यह सिद्ध हुआ कि कषायके सद्भावमें ही क्रिया बन्धकी उत्पादक है। इसलिये प्रथम तो हमें अनात्मीय पदार्थोंमें जो आत्मीयताका अभिप्राय है और जिसके सद्भावमें हमारा ज्ञान तथा चारित्र मिथ्या हो रहा है उसे दूर करनेका प्रयास करना चाहिए। उस विपरीत अभिप्रायके अभाव में आत्माकी जो अवस्था होती है वह रोग जानेके बाद रोगीके जो हल्कापन आता है तत्सदृश हो जाती है । अथवा भारापगमके बाद जो दशा भारवाहीकी होती है वही मिथ्या अभिप्रायके जानेके बाद आत्माकी हो जाती है और उस समय उसके अनुमापक प्रशम, संवेग, अनुकम्पा एवं आस्तिक्य आदि गुणों का विकास आत्मामें स्वयमेव हो जाता है ।
रामटेक
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श्री कुण्डलपुरसे यात्रा करनेके पश्चात् श्री रामटेकके वास्ते प्रयाण किया । हिंडोरिया आया । यहाँ तालाब पर प्राचीन कालका एक जिनबिम्ब है। यहाँ पर कोई जैनी नहीं । यहाँसे चलकर दमोह आया, यहाँ पर २०० घर जैनियोंके बड़े-बड़े धनाढ्य हैं । मन्दिरोंकी रचना अति सुदृढ़ और सुन्दर है । मूर्ति समुदाय पुष्कल है। अनेक मन्दिर हैं। मेरा किसीसे परिचय न था और न करनेका प्रयास ही किया, क्योंकि जैनधर्मका कुछ विशेष ज्ञान न था और न
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