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________________ रेशंदीगिरि और कुण्डलपुर जैनमन्दिर गगनचुम्बी शिखरोंसे सुशोभित एवं चारों तरफ आमके वृक्षोंसे वेष्टित भव्य पुरुषोंके मनको विशुद्ध परिणामोंके कारण बन रहे हैं। उनके दर्शन कर चित्त अत्यन्त प्रसन्न हुआ । प्रतिमाओंके दर्शन करनेसे जो आनन्द होता है उसे प्रायः सब ही आस्तिकजन लोग जानते हैं और नित्य प्रति उसका अनुभव भी करते हैं। अनन्तर पर्वतके ऊपर श्री महावीरस्वामीके पद्मासन प्रतिबिम्बको देखकर तो साक्षात् श्रीवीरदर्शनका ही आनन्द आ गया। ऐसी सुभग पद्मासन प्रतिमा मैंने तो आज तक नहीं देखी ! तीन दिन इस क्षेत्रपर रहा और तीनों ही दिन श्रीवीरप्रभुके दर्शन किये। मैंने वीरप्रभुसे जो प्रार्थना की थी, उसे आजके शब्दोंमें निम्न प्रकार व्यक्त कर सकते हैं - 'हे प्रभो ! यद्यपि आप वीतराग सर्वज्ञ हैं, सब जानते हैं, परन्तु वीतराग होनेसे चाहे आपका भक्त हो चाहे भक्त न हो, उस पर आपको न राग होता है और न द्वेष । जो जीव आपके गुणोंमें अनुरागी है उनमें स्वयमेव शुभ परिणामोंका संचार हो जाता है और वे परिणाम ही पुण्यबन्धमें कारण हो जाते हैं।' तदुक्तम् Jain Education International 23 ' इति स्तुतिं देव ! विधाय दैन्याद् वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि । छाया तरुं संश्रयतः स्वतः स्यात् कश्छायया याचितयात्मलाभः । ' यह श्लोक धनञ्जय सेठने श्रीआदिनाथ प्रभुके स्तवनके अन्तमें कहा है । इस प्रकार आपका स्तवन कर हे देव ! मैं दीनतासे कुछ वरकी याचना नहीं करता; क्योंकि आप उपेक्षक हैं । 'रागद्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा' यह उपेक्षा जिसके हो उसको उपेक्षक कहते हैं। श्री भगवान् उपेक्षक हैं, क्योंकि उनके राग-द्वेष नहीं हैं। जब यह बात है तब विचारो, जिनके राग-द्वेष नहीं उनकी अपने भक्तमें भलाई करनेकी बुद्धि ही नहीं हो सकती । वह देवेंगे ही क्या ? फिर यह प्रश्न हो सकता है कि उनकी भक्ति करनेसे क्या लाभ ? उसका उत्तर यह है कि जो मनुष्य छायादार वृक्षके नीचे बैठ गया, उसको इसकी आवश्यकता नहीं कि वृक्षसे याचना करे - हमें छाया दीजिये । वह तो स्वयं ही वृक्षके नीचे बैठने से छायाका लाभ ले रहा है । एवं जो रुचिपूर्वक श्री अरिहन्तदेवके गुणोंका स्मरण करता है उसके मन्द कषाय होनेसे स्वयं शुभोपयोग होता है और उसके प्रभावसे स्वयं शान्तिका लाभ होने लगता है । ऐसा निमित्तनैमित्तिक संबंध बन रहा है। परन्तु व्यवहार ऐसा होता है जो वृक्षकी छाया । वास्तवमें छाया तो वृक्षकी नहीं, सूर्यकी किरणोंका वृक्षके द्वारा रोध होनेसे वृक्षतलमें स्वयंमेव छाया For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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