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________________ मेरी जीवनगाथा करानेकी ओर नहीं जाती। मेला या प्रतिष्ठाके समय यात्री अपने-अपने घरसे डेरा या झुंगी आदि लाते हैं और उन्हींमें निवासकर पुण्यका संचय करते हैं। यहाँ पर अगहन मासमें इतनी सरदी पड़ती है कि पानी जम जाता है। प्रातःकाल कँपकँपी लगने लगती है। ये सब कष्ट सहकर भी हजारों नर-नारी धर्मसाधन करनेमें कायरता नहीं करते। ऐसा निर्मल स्थान प्रायः भाग्यसे ही मिलता है। ___ यहाँ मैं तीन दिन रहा। चित्त जानेको नहीं चाहता था। चित्तमें यही आता था कि 'सर्व विकल्पोंको त्यागो और धर्म-साधन करो। परन्तु साधनोंके अभावमें दरिद्रोंके मनोरथोंके समान कुछ न कर सका। चार दिनके बाद श्रीअतिशयक्षेत्र कुण्डलपुरके लिये प्रस्थान किया। प्रस्थानके समय आँखोंमें अश्रुधारा आ गई। चलनेमें गतिका वेग न था, पीछे-पीछे देखता जाता था और आगे-आगे चला जाता था। बलात्कार जाना ही पड़ा। सायंकाल होते-होते एक गाँवमें पहुँच गया। थकावटके कारण एक अहीरके घरमें ठहर गया। उसने रात्रिको आग जलाई और कहा 'भोजन बना लो। मेरे यहाँ भूखे पड़े रहना अच्छा नहीं। आप तो भूखे रहो और हम लोग भोजन कर लें, यह अच्छा नहीं लगता। मैंने कहा-'भैया ! मैं रात्रिको भोजन नहीं करता। उसने कहा-'अच्छा, भैंसका दूध ही पी लो, जिससे मुझे तसल्ली हो जाय। मैंने कहा-'मैं पानीके सिवा और कुछ नहीं लेता।' वह बहुत दुःखी हुआ। स्त्रीने तो यहाँ तक कहा-'भला, जिसके दरवाजे पर मेहमान भूखा पड़ा रहे उसको कहाँ तक सन्तोष होगा।' मैंने कहा-'माँ जी ! लाचार हूँ।' तब उस गृहिणीने कहा-'प्रातःकाल भोजन करके जाना, अन्यथा आप दूसरे स्थानपर जाकर सोवें ।' मैंने कहा-'अब आपका सुन्दर घर पाकर कहाँ जाऊँ ? प्रातःकाल होने पर आपकी आज्ञाका पालन होगा।' किसी प्रकार उन्हें सन्तोष कराके सो गया। बाहर दालानमें सोया था, अतः प्रातःकाल मालिकके बिना पूछे ही ५ बजे चल दिया और १० मील चलकर एक ग्राममें ठहर गया। वहीं पर श्रीजिनालयके दर्शनकर पश्चात् भोजन किया और सांयकाल फिर १० मील चलकर एक ग्राममें रात्रिको सो गया, पश्चात् प्रातःकाल वहाँसे चल दिया। इसी प्रकार मार्गको तय करता हुआ तीन दिन बाद कुण्डलपुर पहुँच गया। अवर्णनीय क्षेत्र है। यहाँ पर कई सरोवर तथा आमके बगीचे हैं। एक सरोवर अत्यन्त सुन्दर है। उसके तटपर अनेक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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