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________________ गोपाचलके अञ्चलमें 425 गोपाचल एक पवित्र क्षेत्र बन जायेगा। पर्व समाप्त होनेपर सब लोग अपने-अपने स्थान पर चले गये और हम आनन्दसे ब्रह्मचारीगणके साथ स्वाध्यायमें काल लगाने लगे। निरन्तर अनेक मनुष्य आते थे। एक वेदान्ती महानुभाव प्रायः प्रतिदिन आया करते थे और उनके साथ एक साधु भी। दोनों ही जिज्ञासु थे। उनमें एक महाशय बहुत ही कुशल थे। वेदान्तमें उनकी अकाट्य श्रद्धा थी। जैनधर्मके व्याख्यान सुनकर उनके चित्तमें प्रसन्नता होती थी। परन्तु उनकी यह दृढ़ श्रद्धा थी कि यह सब प्रपञ्च मिथ्या है। मायासे ही सब दिखता है। वस्तुतः कुछ है नहीं। पर्यायदृष्टिसे सत्य है, यह उनको मान्य नहीं। व्यवहारसत्य मानते हैं। व्यवहारसत्य व्यवहारकालमें तो है ही, परन्तु फिर भी मिथ्या कहना कुछ संगत नहीं मालूम पड़ता। अस्तु, उनके आनेसे तात्त्विक चर्चा हो जाती थी। भादोके बाद आश्विन मास भी अच्छा बीता। कार्तिकमें दीपावलीका उत्सव सानन्द हुआ। यहाँ श्रीदीनानाथजी जैन अग्रवालने, जो एक उत्साही पुरुष हैं, अष्टाह्निका पर्वके समय श्रीसिद्धचक्र विधान करवाया। जिसमें पुष्कल द्रव्य व्यय किया। दश हजार मनुष्योंको भोजन कराया, पाँच हजार रुपया विद्यादानमें दिये, ग्यारह सौ रुपया श्रीक्षुल्लक पूर्वसागरजीके आदेशानुसार ग्वालियरकी पाठशालाके लिये और एक सौ रुपया श्री गोपाचलके जीर्णोद्धारमें भी प्रदान किये। उत्सवके समय बाहरसे अनेक गणमान्य विद्वानोंको भी आमंत्रित किया था। उन सबकी संस्थाओंको भी यथायोग्य दान दिया था। बनारससे पं. फूलचन्द्रजी, पं. महेन्द्रकुमारजी, पं. पन्नालालजी काव्यतीर्थ तथा सागरसे पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य, पं. मुन्नालालजी समगौरया भी पधारे थे। पं. चन्द्रमौलिजी वहाँ थे ही। प्राचीन पंडित झम्मनलालजी तर्कतीर्थ भी, जो कि आजकल कलकत्ता रहते हैं, आये थे। प्रतिष्ठाचार्य पं. सूरजपालजी थे। आठ दिन तक दीनानाथ बागमें स्वाध्याय, प्रवचन आदि बड़े समारोह होते रहे। पं. चन्द्रमौलिजी विद्वानोंके भाषण आदिकी उत्तम व्यवस्था करते थे। इसी उत्सवके समय एक दिन सर्वधर्म-सम्मेलन हुआ, एक दिन कवि-सम्मेलन हुआ और एक दिन स्त्री-सम्मेलन भी हुआ, जिसमें महाराजा ग्वालियरकी महारानी भी आईं थीं। आपने आगत जैन समाजकी महिलाओंको बहुत ही रोचक व्याख्यान दिया। पं. महेन्द्रकुमारजी और पं. फूलचन्द्रजीके व्याख्यान बहुत ही रोचक हुए। उत्सव समाप्त हुआ। सब लोग यथास्थान गये। एक बात यहाँ पर हुई, जो कि इस उत्सवके पहले की है, श्रीफूलचन्द्रजीने Jain Education Internațional :..... For Personal & Private Use Only . .. .... www.jainelibrary.org . onlaiorrivateuse only
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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