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________________ मेरी जीवनगाथा 424 प्रकाशित होना आवश्यक है। समय पाकर ही होगा। जितनी आवश्यकता प्राचीन साहित्यकी रक्षा करनेकी है उतनी ही संस्कृतज्ञ विद्वानोंकी भी है। यह सम्बन्ध बीजवृक्षवत् ही रहनेमें समाजका हित है। जितने धार्मिक कार्य हैं उनमें ये विद्वान् ही तो मूल होते हैं। इसी उत्सवमें बनारससे पं. फूलचन्द्रजी, पं. कैलाशचन्द्रजी, पं. पन्नालालजी काव्यतीर्थ, सागरसे पं. दयाचन्द्रजी, पं. पन्नालालजी साहित्याचार्य, बीनासे पं. बंशीधरजी व्याकरणाचार्य आदि अनेक विद्वान् पधारे थे। अन्य जनता भी यथायोग्य आई थी। विद्वत्परिषद् कार्यकारिणी समितिकी बैठक भी इस समय हुई थी। मुरारकी समाजने सबके खान-पानकी सुन्दर व्यवस्था की थी। दो दिन उत्सव रहा, बादमें सब लोग चले गये। इसके बाद आनन्दसे हम लोगोंका काल बीतने लगा। भाद्रमासमें पाँच दिन लश्कर और छह दिन मुरारमें बीते । शाहपुरसे पं. शीतलचन्द्रजी, खतौलीसे पं. त्रिलोकचन्द्रजी, सलावासे पं. हुकुमचन्द्रजी और सहारनपुरसे पं. रतनचन्द्रजी तथा श्रीमान् वकील नेमिचन्द्रजी साहब और मगरपुरसे लाला मंगलसेनजी भी आ गये। खतौलीसे लाला खिचौड़ीमल्लजी साहब बराबर दो मास रहे। आपका चौका प्रायः प्रतिदिन लगता था। आप निरन्तर तीन पात्रोंको भोजन दान देकर भोजन करते थे। आप छ: मासमें तीन बार रहे और निर्विधन रहे । आप दानशूर हैं। आपके नियम अकाट्य हैं। संयमी हैं। परोपकारी भी बहुत हैं। आप व्यापार नहीं करते। कुछ रुपया है, उसीके ब्याजसे निर्वाह करते हैं। आपका पूजनका नियम है। स्वाध्याय भी नियमित करते हैं। __ इन सबके समागमसे व्रतोंके दिन सानन्द बीते । क्षुल्लक पूर्णसागरजीने लश्करमें जातिसंघटनका कार्य प्रारम्भ कर दिया और प्रायः उसमें सफल भी हुए। मेरा उपयोग गोपाचलकी भग्न प्रतिमाओंके सुधारकी ओर गया। कई महानुभावोंने उसके लिये द्रव्य प्रदान करनेमें संकोच न किया। सबसे प्रथम श्रीयुत् चन्दाबाईजी साहब आराने पाँचसौ रुपया दिये। इसके बाद एक हजार रुपये सिंघई कारेलाल कुन्दनलालजी सागरवालोंने भी दिये। इसी तरह मुरारवालोंने आहारदानके समय हजारों रुपये इस कार्यके लिये दिये। श्रीसेठी संस्करणजीने अपना समय सुधार करनेमें लगाया, परन्तु बलिहारी इस समयकी कि जिससे अकारण ही विरोध होनेसे कुछ विध्न आगया। सम्भव है विरोध मिटनेके बाद यह कार्य पुनः प्रारम्भ होकर अच्छी तरह समाप्त होगा, जिससे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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