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________________ गोपाचलके अञ्चलमें 423 नौ रुपयाकी आय और ग्यारह रुपयाका व्यय है। यदि किसी भाग्यवान्के चित्तमें आ जावे तो अनायास इस क्षेत्रका उद्धार हो सकता है। मनमें दुःखभरी साँस लेता हुआ वहाँसे चला और ढाई मील चलकर स्वर्गीय गुलाबचन्द्रजी सेठके बागमें, जिसके कि मालिक श्रीगणेशीलालजी साहब खण्डेलवाल हैं, हम लोग ठहर गये । बाग बहुत ही मनोहर और भव्य है। बीचमें एक सुन्दर भवन बना है, जिसमें पाँचसौ आदमी प्रवचन सुन सकते हैं। भवनके चारों ओर चार सुन्दर दहलाने हैं। चारों ओर चार पक्के मार्ग हैं। मार्गमें वृक्षावली है। उत्तरकी ओर पचास हाथ चलकर एक सुन्दर भवन बना हुआ है, जिसमें दो गृहस्थ रह सकते हैं। पश्चिमकी ओर एक भोजनभवन है, जिसमें पचास आदमी एक साथ भोजन कर सकते हैं। दक्षिणकी ओर राजमार्गके तटपर एक सुन्दर मन्दिर बना हुआ है, जिससे आगन्तुकोंको धर्मसाधनकी सुविधा रहती है। यहाँपर आनन्दसे हम लोग रहने लगे। किसी प्रकारकी व्यग्रता नहीं रही। यहाँसे मुरार डेढ़ मील है। वहाँसे प्रतिदिन दो चौका आते थे। यहीं पर आगत ब्रह्मचारियों और अतिथि महाशयों का भोजन होता था। दो अतिथियोंमें एक श्रीपूर्णसागर क्षुल्लक भी थे। चरणानुयोगकी पद्धतिसे यद्यपि बहुतसे मनुष्य इस भोजनचर्याको सदोष कह सकते हैं, परन्तु वर्तमान कालको देखकर सन्तोष करना ही अच्छा है। गर्मीका प्रकोप अधिक था, इससे प्रायः मुरार जाना नहीं होता था। गर्मी के दिन शान्तिसे बीते। मुरारवालोंने सब तरहकी सुविधा कर दी। किसी भी बाह्य आपत्तिका सामना न करना पड़ा। कुछ पानी बरस गया, जिससे ठण्डा मालूम हुआ और आगे जानेका निश्चय किया। परन्तु मुरार समाजके प्रेम तथा आग्रहसे वहीं चतुर्मास करनेका निश्चय करना पड़ा। पण्डित चन्द्रमौलिजी साथ थे। उन्होंने सब त्यागी मण्डली तथा आनेवाले यात्री महानुभावोंकी सुन्दर व्यवस्था की और समयसमयपर होनेवाले आयोजनोंको परिश्रमपूर्वक सफल बनाया। आप एक कुशल व्यवस्थापक हैं। पर्वके बाद श्रावण वदि एकमको वीरशासन जयन्तीका उत्सव समारोहके साथ हुआ। श्रीमान् पण्डित जुगलकिशोरजी मुख्तार साहबके शुभागमनसे बहुत ही तत्त्वचर्चा हुई। पं. दरबारीलालजी न्यायाचार्य तथा पं. परमानन्दजी शास्त्री भी आपके साथ थे। आप लोगोंके द्वारा प्राचीनताकी बहुत खोज हुई है। उसका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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