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________________ मेरी जीवनगाथा 422 स्वाध्यायमें तटस्थ हैं। आपकी मातेश्वरी धार्मिक हैं। कोई भी त्यागी आवे उसकी वैयावृत्य करनेमें आपकी निरन्तर प्रवृत्ति रहती है। कुछ दूरी पर नसियामें शान्तिनाथ स्वामीकी खड्गासन मनोहर प्रतिमा है, जो एक कत्रिम पर्वतके आश्रयसे विराजमान की गई है। प्रतिमा प्राचीन होने पर भी अपनी सुन्दरता और स्वच्छतासे नवीन-सी मालूम होती है। चेहरेसे शान्ति टपकती है। यह प्रतिमा पासके किसी वनखण्डसे यहाँ लाई गई थी। उक्त मन्दिरोंके सिवा यहाँ और भी अनेक मन्दिर हैं। गर्मीके प्रकोपके कारण मैं उनके दर्शनसे वञ्चित रहा। __ यह सब होकर भी यहाँपर कोई ऐसा विद्यायतन नहीं कि जिसमें बालक धार्मिक शिक्षा पा सकें। चम्पाबागकी धर्मशालामें पहुँचते ही मुझे उस दिनकी स्मृति आ गई, जिस दिन कि मैं सर्व प्रथम अध्ययन करनेके लिये बाईजी के पाससे जयपुरको रवाना हुआ था और आकर इसी चम्पाबागमें ठहरा था। जब तक मैं नगरके बाहर शौचक्रियाके लिये गया था तब तक किसीने ताला खोलकर मेरा सब सामान चुरा लिया था। मेरे पास सिर्फ एक लोटा और एक छतरी और छह आना पैसे बचे थे और मैं निराश होकर पैदल ही घर वापिस लौट गया था। यहाँसे चलकर वैसाख सुदि ५ को गोपाचलके दर्शन करनेके लिये गया। गोपाचल क्या है ? दिगम्बर जैन संस्कृतिका द्योतक सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ पर्वतकी भित्तियोंसे विशालकाय जिनबिम्ब कुशल कारीगरोंके द्वारा महाराज दूंगरसिंहके समयमें निर्मित्त किये गये थे। लाखों रुपया उस कार्यमें खर्च हुआ होगा। पर मुगलसाम्राज्यकालमें वे सब प्रतिमाएँ टाँकीसे खण्डित कर दी गईं हैं। कितनी ही पद्मासन मूर्तियाँ तो इतनी विशाल हैं कि जितनी उपलब्ध पृथिवीमें कहीं नहीं होंगी। खण्डित प्रतिमाओंके अवलोकनसे मनमें विचार आया कि आज कलके मनुष्य नवीन मन्दिरोंके निर्माणमें लाखों रुपया लगा देते हैं, परन्तु कोई ऐसा उदार हृदयवाला नहीं निकलता जो कि इन प्रतिमाओंके उद्धारमें भी कुछ लगाता। यदि कोई यहाँका उद्धार करे तो भारतवर्षमें यह स्थान अद्वितीय क्षेत्र हो जावे, परन्तु यह होना कठिन है। पञ्चमकाल है, अतः ऐसी सुमतिका होना कठिन है। लश्करके चम्पाबागमें लाखों रुपयोंकी लागतके दुष्कर मन्दिर हैं, परन्तु किलेकी प्रतिमाओंके उद्धारके लिये किसीने प्रयत्न नहीं किया और न इसकी आशा है। हाँ, सम्भव है तीर्थक्षेत्र कमेटीकी दृष्टि इस ओर आवे। परन्तु वह भी असम्भव है, क्योंकि उसके पास Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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