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________________ मेरी जीवनगाथा 420 नहीं। यह जो उसमें होता है वह उपचारसे होता है। अनादिकालसे इस आत्माके साथ मोहकर्मका सम्बन्ध है। इसके उदयमें आत्माका जो चारित्रगुण है वह विकृतरूप हो जाता है और तब यह जीव अनुकूल पदार्थों में उपादेयबुद्धि तथा प्रतिकूल पदार्थों में हेयबुद्धिकी कल्पना कर लेता है। इसके सिवाय जो पदार्थ न तो अनुकूल है और न प्रतिकूल ही, उनमें उपेक्षाबुद्धि कर लेता है। डबरासे चलकर बीचमें कई स्थानोंपर ठहरे, पर कोई विशेष बात नहीं हुई। एक दिन डांगके महावीरके स्थानपर ठहर गये। यहाँपर एक साधु महात्मा था, जो बहुत ही शिष्ट था। बड़ा ही सौजन्य उसने दिखाया। हमारे यहाँ तो कुछ ऐसी पद्धति हो गई है कि अन्यमतावलम्बी साधुके साथ यदि कोई विनयसे बर्ताव करे तब यह कहने में संकोच नहीं कि तुम तो वैनयिक मिथ्यादृष्टि हो। अस्तु, कुछ बुद्धिमें नहीं आता। जो धर्म इतना उपदेश देता है कि एकेन्द्रिय जीवकी भी बिना प्रयोजन क्षति न करो उसका व्यवहार संज्ञी जीवोंके प्रति कितना विशिष्ट होगा, यह आप जान सकते हैं। गोपाचलके अञ्चलमें डबरासे चलकर क्रमशः लश्कर पहुंचे। यहाँ तक चौकाका प्रबन्ध सहारनपुरवालोंकी ओरसे विशेष रूपसे था। लश्करकी महावीर धर्मशालामें बारात ठहरी थी, अतः तेरापन्थी धर्मशालामें ठहर गये। धर्मशाला बहुत सुन्दर है। कूपका जल भी मीठा है। वैशाख मास होनेसे गर्मीका प्रकोप था, अतः दिनके समय कुछ बेचैनी रहती थी। परन्तु रात्रिका समय आनन्दसे जाता था। यह सब होने पर भी बारह बजे रात्रि तक सिनेमाकी चहल-पहल रहती थी, अतः निद्रा महारानी रूष्ट रहती थी। हाँ, बारह बजेसे चार बजे तक आनन्दसे निन्द्रा आती थी। अनन्तर सामायिक क्रियामें काल जाता था। इसके बाद पहाड़ीके ऊपर दीर्घशंकासे निवृत्त हो शुचिक्रियाके अनन्तर श्रीमन्दिरजीमें जाते थे। साढ़े आठ बजेसे साढ़े नौ बजे तक स्वाध्यायमें काल जाता था। यहाँपर सर्राफाका जो बड़ा मन्दिर है उसकी शोभा अवर्णनीय है। इस मन्दिरमें चारों तरफ दहलानें हैं। तीन तरफ बिलकुल कपाट नहीं हैं। एक ओर जहाँ श्रीजिनदेवका आलय है कपाट लगे हैं। बीचमें समयसरणकी वेदिका है। उसके दाँयें-बाँयें दो वेदिकाएँ और हैं। उनमेंसे एकमें स्फटिक मणिके बिम्ब हैं, जो बहुत ही मनोहर व एक फुटकी अवगाहनाके हैं। दूसरी वेदिकामें भी पाषाण और धातुके बहुतसे जिनबिम्ब हैं। मन्दिरसे बाहर एक दहलानमें बहुत सुन्दर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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