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________________ 20 मेरी जीवनगाथा उन्होंने मुझसे कहा-'आपका शुभागमन कैसा हुआ ?' मैंने कहा - 'क्या कहूँ ? मेरी दशा अत्यन्त करुणामयी है । उसका दिग्दर्शन करानेसे आपके चित्तमें खिन्नता ही बढ़ेगी। प्राणियोंने जो अर्जन किया है उसका फल कौन भोगे ? मेरी कथा सुननेकी इच्छा छोड़ दीजिये। कुछ जैनधर्मका वर्णन कीजिये, जिससे शान्तिका लाभ हो ।' आपने एक घण्टा आत्मधर्मका समीचीन रीतिसे विवेचन कर मेरे खिन्न चित्तको सन्तोष लाभ कराया । अनन्तर पूछा- अब तो अपनी आत्म-कहानी सुना दो। मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ था, अतः सारी बातें न बता सका। केवल जानेकी इच्छा जाहिर की । यह सुन श्री सेठ लक्ष्मीचन्द्रजीने बिना माँगे ही दस रुपया मुझे दिये और कहा आनन्दसे जाइये। साथ ही यह आश्वासन भी दिया कि यदि कुछ व्यापार करनेकी इच्छा हो तो सौ या दो-सौकी पूँजीभी लगा देंगें । पाठकगण, इतनी छोटी-सी रकमसे क्या व्यापार होगा, ऐसी आशंका न करें, क्योंकि उन दिनों दो-सौमें बारह मन घी और पाँच मन कपड़ा आता था । तथा एक रुपयेका एक मन गेहूँ, सवा मन चना, डेढ़ मन जुवारी और दो मन कोदों बिकते थे। उस समय अन्नादिकी व्यग्रता किसीको न थी । घर-घर दूध और घीका भरपूर संग्रह रहता था । रेशन्दीगिरि और कुण्डलपुर मैं दस रुपया लेकर बमरानासे मड़ावरा आ गया । पाँच दिन रहकर माँ तथा स्त्रीकी अनुमतिके बिना ही कुण्डलपुरकी यात्राके लिये प्रस्थान कर दिया । मेरी यात्रा निरुद्देश्य थी । क्या करना, कुछ भी नहीं समझता था । 'हे प्रभो ! आप ही संरक्षक हैं' ऐसा विचारता हुआ मड़ावरासे चलकर चौदह मील बरायठा नगरमें आया । यहाँ जैनियोंके साठ घर हैं। सुन्दर उच्चस्थानपर जिनेन्द्रदेवका मन्दिर है । मन्दिरके चारों तरफ कोट है। कोटके बीचमें ही छोटी-सी धर्मशाला है । उसीमें रात्रिको ठहर गया । यहाँ सेठ कमलापतिजी बहुत ही प्रखरबुद्धिके मनुष्य हैं । आपका शास्त्रज्ञान बहुत अच्छा है। उन्होंने मुझे बहुत आश्वासन दिया और समझाया कि तुम यहाँ ही रहो। मैं सब तरहसे सहायता करूँगा । आजीविकाकी चिन्ता मत करो। अपनी माँ और पत्नीको बुला लो । साथ ही यह भी कहा कि मेरे सहवाससे आपको शीघ्र ही जैनधर्मका बोध हो जायगा। मैंने कहा - 'अभी श्री कुण्डलपुरकी यात्राको जाता हूँ । यात्रा करके आ जाऊँगा ।' सेठजी साहबने कहा- 'आपकी इच्छा, परन्तु निरुद्देश्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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