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सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी
विचार करता है कि कहाँ जावें और क्या करें ? इसी बातको एक कवि इन शब्दोंमें व्यक्त करता है :
'पुरारे वापारे गिरिरतिदुरारोहशिखरो
गिरौ सव्येऽसव्ये दवदहनज्वालाव्यतिकरः । धनुःपाणिः पश्चान्मृगयुतको धावति भृशं
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क्व यामः किं कुर्मः हरिणशिशुरेवं विलपति।।'
उस समय हमारी भी ठीक यही अवस्था थी । क्या करें, कुछ भी निर्णय नहीं कर सके। दो या तीन दिन खुरईमें रहकर बनपुरया और वैद्य आनन्दकिशोरजीकी इच्छानुसार मैं मड़ावरा अपनी माँके पास चला गया। रास्तेमें तीन दिन लगे । लज्जावश रात्रिको घर पहुँचा ।
सेठ लक्ष्मीचन्द्रजी
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मुझे आया हुआ देखकर माँ बड़ी प्रसन्न हुई । बोली-‘बेटा ! आ गये ?‘ मैंने कहा- हाँ माँ ! आ गया ।' माँने उपदेश दिया - 'बेटा! आनन्दसे रहो, क्यों इधर-उधर भटकते हो। अपना मौलिक धर्म पालन करो और कुछ व्यापार करो, तुम्हारे काका समर्थ हैं। वे तुम्हें व्यापारकी पद्धति सिखा देंगे।' मैं माँकी शिक्षा सुनता रहा परन्तु जैसे चिकने घड़ेमें पानी का प्रवेश नहीं होता वैसे ही मेरे ऊपर उस शिक्षाका कोई भी असर नहीं हुआ । मैं तीन दिन वहाँ रहा । पश्चात् माँकी आज्ञासे बमराना चला गया।
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यहाँ श्री सेठ ब्रजलाल, चन्द्रभान व श्री लक्ष्मीचन्द्रजी साहब रहते थे तीनों भाई धर्मात्मा थे। निरन्तर पूजा करना, स्वाध्याय करना व आये हुए जैनीको सहभोजन कराना आपका प्रतिदिनका काम था । तब आपके चौकामें प्रतिदिन ५० से कम जैनी भोजन नहीं करते थे। कोई विद्वान् व त्यागी आपके यहाँ सदा रहता ही था । मन्दिर इतना सुन्दर था, मानो स्वर्गका चैत्यालय ही हो। जिस समय तीनों भाई पूजाके लिये खड़े होते थे, उस समय ऐसा मालूम होता था मानों इंद्र ही स्वर्गसे आये हों। तीनों भाइयोंमें परस्पर राम-लक्ष्मणकी तरह प्रेम था । मन्दिरमें पूजा आदि महोत्सव होते समय चतुर्थ कालका स्मरण हो आता था। स्वाध्यायमें तीनों भाई बराबर तत्त्वचर्चा कर एक घण्टा समय लगाते थे। साथ ही अन्य श्रोतागण भी उपस्थित रहते थे। इन तीनोंमें लक्ष्मीचन्द्रजी सेठ प्रखरबुद्धि थे । आपको शास्त्र - प्रवचनका एक प्रकारसे व्यसन ही था । आपकी चित्तवृत्ति भी निरन्तर परोपकारमें रत रहती थी
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