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________________ मेरी जीवनगाथा 18 देखी, जिससे कि तुम्हारी अभिरुचि जैनधर्मकी ओर हो गई है ?' मैंने कहा-'इस धर्म वाले दयाका पालन करते हैं, छानकर पानी पीते है, रात्रि भोजन नहीं करते, स्वच्छतापूर्वक रहते हैं, स्त्री-पुरुष प्रतिदिन मन्दिर जाते हैं, मन्दिरमें मूर्तियाँ बहुत सुन्दर होती हैं, प्रतिदिन मन्दिरमें शास्त्र-प्रवचन होता है, किसी दूसरी जातिका भोजन नहीं करते हैं और भोजनकी सामग्री सम्यक् प्रकार देखकर उपयोग में लाते हैं इत्यादि शुभाचरणकी विशेषता देखकर मैं जैनधर्ममें दृढ़ श्रद्धावान् हो गया हूँ।' पण्डितजी ने कहा-'यह क्रिया तो हर धर्मवाले कर सकते हैं, हर कोई दया पालता है। तुमने धर्मका मर्म नहीं समझा। आजकल मनुष्य न तो कुछ समझें और न जानें, केवल खान-पानके लोभसे जैनी हो जाते हैं। तुमने बड़ी भूल की, जो जैनी हो गये, ऐसा होना सर्वथा अनुचित है। वञ्चना करना महापाप है। जाओ, मैं क्या समझाऊँ। मुझे तो तुम्हारे ऊपर तरस आता है। न तो तुम वैष्णव ही रहे और न ही तुम जैनी ही। व्यर्थ ही तुम्हारा जन्म जायेगा।' पण्डितजीकी बात सुनकर मुझे बहुत खेद हुआ। मैंने कहा-'महाराज ! आपने मुझे सान्त्वनाके बदले वाकवाणोंकी वर्षासे आछन्न कर दिया। मेरी आत्मामें तो इतना खेद हुआ, जिसे मैं व्यक्त ही नहीं कर सकता। आपने मेरे साथ जो इस तरह व्यवहार किया, सो आप ही बतलाइये कि मैंने क्या आपसे चन्दा माँगा था या कोई याचना की थी, या आजीविकाका साधन पूछा था ? व्यर्थ ही आपने मेरे साथ अन्यथा व्यवहार किया। क्या यहाँ पर जितने श्रोता हैं वे सब आपकी तरह शास्त्र बाँचनेमें पटु हैं या सब ही जैनधर्मके मार्मिक पण्डित हैं ? नहीं, मैं तो एक भिन्न कुलका भिन्न धर्मका अनुयायी हूँ। थोड़ेसे कालमें बिना किसी समागमके जैनधर्मका स्वरूप कैसे जान सकता था ? और फिर आप जैसे विद्वानोंके सामने कहता ही क्या ? मैंने जो कुछ कहा, बहुत था, परन्तु न जाने आपको मेरे ऊपर क्यों इतनी बेरहमी हो गई। मेरे दुर्दैवका ही प्रकोप है। अस्तु, अब पण्डितजी ! आपसे शपथपूर्वक कहता हूँ-उस दिन ही आपके दर्शन करूँगा, जिस दिन धर्मका मार्मिक स्वरूप आपके समक्ष रख कर आपको सन्तुष्ट कर सकूँगा। आज आप जो वाक्य मेरे प्रति व्यवहारमें लाये हैं तब आपको वापिस लेने पड़ेंगे।' ____ मैं इस तरह पण्डितजीके ऊपर बहुत ही खिन्न हुआ। साथ ही यह प्रतिज्ञा की कि किसी तरह ज्ञानार्जन करना आवश्यक है। प्रतिज्ञा तो कर ली, परन्तु ज्ञानार्जन करनेका कोई भी साधन न था। पासमें न तो द्रव्य ही था और न किसी विद्वान्का समागम ही था। कुछ उपाय नहीं सूझता था, रेवाके तटपर स्थित मृग जैसी दशा थी। रेवा नदीके तटपर एक बड़ा भारी पर्वत है, वहाँ पर असहाय एक मृगका बच्चा खड़ा हुआ है, उसके सामने रेवा नदी है और पर्वत भी। दाएं-बाएँ दावानलकी ज्वाला धधक रही है, पीछे शिकारी हाथमें धनुष-बाण लिए मारनेको दौड़ रहा है। ऐसी हालतमें वह हरिणका शावक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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