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________________ खुरईमें तीन दिन वीतरागता ही अनन्त सुखकी जननी है। मुझे जो आनन्द आया वह किससे कहूँ ? उसकी कुछ उपमा हो, तब तो कहूँ। वह ज्ञानमें तो आ गया, परन्तु वर्णन करनेको मेरे पास शब्द नहीं। इतना भर कह सकता हूँ कि वह आनन्द पञ्चेन्द्रियोंके विषय-सेवनसे नहीं आ सकता। यद्यपि पञ्चेन्द्रियोंके विषयसे भी आनन्द आता है, परन्तु उसमें तृष्णारोगरूप आकुलता बनी रहती है। मूर्तिके देखनेसे जो आनन्द आया उसमें वह बात नहीं थी। आप लोग माने या न मानें, परन्तु मुझे तो विलक्षणताका भान हुआ और आप मेरे द्वारा सुनना चाहे तो मेरी शक्ति से बाह्य है। मेरा तो यहाँ तक विश्वास है कि सामान्य घटपटादिक पदार्थों का जो ज्ञान है उसके व्यक्त करनेकी भी हममें सामर्थ्य नहीं है फिर इसका व्यक्त करना तो बहुत ही कठिन है। श्री प्रभु पार्श्वनाथके दर्शनके अनन्तर श्रीमान् पण्डितजीका प्रवचन सुना। पण्डितजी बहुत ही रोचक और मार्मिक विवेचनके साथ तत्त्वकी व्याख्या करते थे। यद्यपि पण्डितजीका विवेचन सारगर्भित था, परन्तु हम अज्ञानी लोग उसका विशेष लाभ नहीं ले सके। फिर भी विशद्ध भाव होनेसे पुण्यका संचय करनेमें समर्थ हुए। शास्त्र-समाप्तिके अनन्तर डेरापर आकर सो गये। प्रातःकाल शौचादिसे निवृत्त होकर श्रीमन्दिरजीमें दर्शनादि करनेके निमित्त चले गये। प्रातःकालका समय था। लोग स्वरके साथ पूजन कर रहे थे। सुनकर मैं गद्गद् हो गया। देव-देवांगनाओंकी तरह मन्दिरमें पुरुष और नारियोंका समुदाय था। इन सबके स्तवनादि पाठसे मन्दिर गूंज उठता था। ऐसा प्रतीत होता था, मानो मेघध्वनि हो रही हो। पूजा समाप्त होनेके अनन्तर श्रीमान् पण्डितजीका प्रवचन हुआ। पण्डितजी समयसार और पद्मपुराण शास्त्रोंका रहस्य इतनी स्वच्छ प्रणालीसे कह रहे थे कि दो-सौ स्त्री-पुरुष चित्रलिखित मनुष्यों के समान स्थिर हो गये थे। मेरी आत्मा में विलक्षण स्फूर्ति हुई। जब शास्त्र विराजमान हो गये तब मैंने श्रीमान् वक्ताजीसे कहा-'हे भगवन् ! मैं अपनी मनोवृत्तिमें जो कुछ आया उसे आपको श्रवण कराना चाहता हूँ।' आज्ञा हुई-'सुनाओ।' मैंने कहा-'ऐसा भी कोई उपाय है जिससे मैं जैनधर्मका रहस्य जान सकूँ ?' आपने कहा-'तुम कौन हो ?' मैंने कहा-'भो भगवन् ! मैं वैष्णव कुलके असाटीवंशमें उत्पन्न हुआ हूँ। मेरे वंशके सभी लोग वैष्णव धर्मके उपासक हैं। वंश ही क्या, जितने भी असाटी वैश्य हैं सब ही वैष्णव धर्मके उपासक हैं किन्तु मेरी श्रद्धा भाग्योदयसे इस जैनधर्ममें दृढ़ हो गई है। निरन्तर इसी चिन्तामें रहता हूँ कि जैनधर्मका कुछ ज्ञान हो जाय।' पण्डितजी महोदयने प्रश्न किया कि 'तुमने जैनधर्ममें कौन-सी विलक्षणता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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