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________________ मेरी जीवनगाथा 16 इच्छा बनी रही। किन्तु खुरई जाना था। इसलिये तीसरे दिन यहाँसे प्रस्थान कर दिया। यहाँसे श्रीनन्दकिशोर वैद्य भी खुरईके लिये बनपुरयाके साथ हो गये। आप वैद्य ही न थे जैनधर्मके भी विद्वान् थे। इनका साथ हो जानेसे मार्गमें किसी प्रकारकी थकान नहीं हुई। आपने मुझे बहुत समझाया और यह आदेश दिया कि तुम इस तरह भ्रमण मत करो, इससे कोई लाभ नहीं। यदि वास्तवमें जैनधर्मका रहस्य जाननेकी अभिलाषा है तो मड़ावरा. रहो और अपनी माँ तथा धर्मपत्नीको साथ रखो। वहाँ भी जैनी हैं। उनके सम्बन्धसे तुम्हारी समझमें जैनधर्मका रहस्य आ जायगा। इसीमें तुम्हारी प्रतिष्ठा है। घर-घर फिरनेसे अनादर होने लगता है। मैं उनकी बात मान गया और खुरई यात्राके बाद घर चले जानेकी इच्छा जाहिर की। खुरई चलनेका प्रयोजन बतलाते हुए मैंने कहा-'सुनते हैं कि वहाँ पर श्री पन्नालालजी जैनधर्मके प्रखर विद्वान् हैं । उनके दर्शन कर मड़ावरा चला जाऊँगा।' खुरईमें तीन दिन __तीन या चार दिनमें खुरई पहुँच गया। वे सब श्रीमन्तके यहाँ ठहर गये। उनके साथ मैं भी वहीं ठहर गया। यहाँ श्रीमन्तसे तात्पर्य श्रीमान् श्रीमन्त सेठ मोहनलालजीसे है। आप करोड़पति थे। करोड़पति तो बहुत होते हैं परन्तु आपकी प्रतिभा बृहस्पतिके सदृश थी। आप जैनशास्त्रके मर्मज्ञ विद्वान् थे। आप प्रतिदिन पूजा करते थे। आप जैनशास्त्रके ही मज्ञ विद्वान् न थे किन्तु राजकीय कानूनके भी प्रखर पण्डित थे। सरकारमें आपकी प्रतिष्ठा अच्छे रईसोंके समान होती थी। खुरईके तो आप राजा कहलाते थे। आपके सब ठाट राजाओंके समान थे। जैन जातिके आप भूषण थे। आपके यहाँ तीन माह बाद एक कमेटी होती थी, जिसमें खुरई-सागर प्रान्तकी जैन जनता सम्मिलित होती थी। उसका कुल व्यय आप ही करते थे। आपके यहाँ पण्डित पन्नालालजी न्यायदिवाकर व श्रीमान् शान्तिलालजी साहब आगरावाले आते रहते थे। उनके आप अत्यन्त भक्त थे। उस समय आप दिगम्बर जैन महासभाके मन्त्री भी थे। सायंकाल सब लोग श्रीजिनालय गये। श्रीजिनालयकी रचना देखकर चित्त प्रसन्न हुआ, किन्तु सबसे अधिक प्रसन्नता श्री १००८ देवाधिदेव पार्श्वनाथके प्रतिबिम्बको देखकर हुई। यह सातिशय प्रतिमा है। देखकर हृदयमें जो प्रमोद हुआ वह अवर्णनीय है। नासाग्रदृष्टि देखकर यही प्रतीत होता था कि प्रभुकी सौम्यता अतुल है। ऐसी मुद्रा वीतरागताकी अनुमापक है। निराकुलतारूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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