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________________ श्रीस्वरूपचन्द्रजी बनपुरया और खुरई यात्रा 15 सुन्दर गान होता था कि लोग विशुद्ध परिणामोंके द्वारा अनायास पुण्यबन्धन कर लेते थे। इन उत्सवोंमें जनतामें सहज ही जैनधर्मका प्रचार हो जाता था । स्वरूपचन्द्रजी बनपुरयाके यहाँ प्रतिवर्ष श्री जिनेन्द्रकी जलयात्रा होती थी। इनके यहाँ आनन्दसे दो माह बीत गये । अनन्तर श्री स्वरूपचन्द्रजी बनपुरयाका किसी कार्यवश श्रीमन्तके यहाँ जानेका विचार हुआ। उन्होंने आग्रहके साथ मुझसे कहा - ' जबतक मैं वापिस न आ जाऊँ तबतक आप यहाँ से अन्यत्र न जाएँ।' इस समय श्रीयुत वर्णीजी जतारा चले गये थे । इससे मेरा चित्त खिन्न हो उठा । किन्तु संसारकी दशाका विचारकर यही निश्चय किया कि 'जहाँ संयोग है वहाँ वियोग है और जहाँ वियोग है वहाँ संयोग है । अन्यकी कथा छोड़िये, संसारका वियोग होने पर ही मोक्षका संयोग होता है। जब वस्तुस्थिति ही इस रूप है तब शोक करना व्यर्थ है।' इतना विचार किया तो भी वर्णीजीके वियोगमें मैं उदास ही रहने लगा। इससे इतना लाभ अवश्य हुआ कि मेरा माची रहना छूट गया। यदि वर्णीजी महोदय जतारा न जाते तो मैं माची कदापि न छोड़ता । स्वरूपचन्द्रजी बनपुरयाके साथ मेरे भी भाव खुरई जानेको हो गये । उन्होंने भी हार्दिक प्रेमके साथ चलनेकी अनुमति दे दी। दो दिनमें हमलोग टीकमगढ़ पहुँच गये। उन दिनों वहाँ जैनधर्मके मार्मिक ज्ञाता दो विद्वान् थे । एकका नाम श्री गोटीराम भायजी था । आप संस्कृतके प्रकाण्ड विद्वान् तो थे ही, साथ ही श्रीगोम्मटसारादि ग्रन्थोंके मार्मिक विद्वान् थे । आपकी वचनिकामें अच्छा जनसमुदाय उपस्थित रहता था । मैं भी आपके प्रवचनमें गया और आपकी व्याख्यानशैली सुन मुग्ध हो गया । मनमें यही भाव हुआ कि - 'हे प्रभो ! क्या आपके दिव्यज्ञानमें यह देखा गया है कि मैं भी किसी दिन जैनधर्मका ज्ञाता होऊँगा ।' 1 Jain Education International दूसरे पण्डित जवाहरलाल दरगैयां थे। इनके शास्त्र-प्रवचनमें भी मैं गया। आप भाषाके प्रखर पण्डित थे । गला इतना सुरीला था कि अच्छे-अच्छे गानविद्यावाले मोहित हो जाते थे। जब ये उच्चस्वरसे किसी चौपाई या दोहेका उच्चारण करते थे, तब दो फर्लांग तक इनका शब्द सुनाई पड़ता था । पाँच हजार जनता भी इनका प्रवचन सुन सकती थी । इनकी मधुर ध्वनि सुन रोते हुए बालक भी शान्त हो जाते थे । कहाँ तक लिखूँ ? इनके प्रवचनमें आपसे आप सभा शान्त भावका आश्रय ले धर्मकाम करती हुई अपनेको कृत्यकृत्य समझती थी। जो एक बार आपका प्रवचन सुन चुकता था, वह पुनः प्रवचन सुनको उत्सुक रहता था । इनके प्रवचनके लिए लोग पहलेसे ही उपस्थित हो जाते थे। मैंने दो दिन इनके श्रीमुखसे प्रवचन सुना था, और फिर भी सुनने की For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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