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मेरी जीवनगाथा
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लिया। दाल पक गई थी। उसको खाया। मैंने आजतक बहुत जगह भोजन किया है, परन्तु उस दालका जो स्वाद था, वैसी दाल आजतक भोजनमें नहीं आई। इस प्रकार चार दिनके बाद भोजन कर जो तृप्ति हुई उसे मैं ही जानता हूँ। अब पासमें एक आना रह गया। यहाँसे चलकर फिर वही चाल अर्थात् दो पैसेके चने लेकर चाबे और वहाँसे चलकर पारके गाँव पहुँच गया।
यहाँ से सिमरा नौ मील दूर था, परन्तु लज्जावश वहाँ न जाकर यहीं पर रहने लगा। और यहीं एक जैनी भाईके घर आनन्दसे भोजन करता था और गाँवके जैन बालकोंको प्राथमिक शिक्षा देने लगा।
दैवका प्रबल प्रकोप तो था ही-मुझे मलेरिया आने लगा। ऐसे वेगसे मलेरिया आया कि शरीर पीला पड़ गया। औषधि रोगको दूर न कर सकी। एक वैद्यने कहा-'प्रातःकाल वायुसेवन करो और ओसमें आध घण्टा टहलो।'
मैंने वही किया। पन्द्रह दिनमें ज्वर चला गया। फिर वहाँसे आठ मील चलकर जतारा आ गया। वहाँ पर भायजी साहब और वर्णीजीसे भेंट हो गई और उनके सहवासमें पूर्ववत् धर्मसाधन करने लगा।
श्री स्वरूपचन्द्रजी बनपुरया और खुरई-यात्रा बाईजीने बहुत बुलाया, परन्तु मैं लज्जाके कारण नहीं गया। उस समय यहाँपर स्वरूपचन्द्र बनपुरया रहते थे। उनके साथ उनके गाँव माची चला गया, जो जतारासे तीन मील दूर है। वह बहुत ही सज्जन व्यक्ति थे। इनकी धर्मपत्नी इनके अनुकूल तो थी ही, साथ ही अतिथि-सत्कारमें भी अत्यन्त पटु थीं। इनमें चौके में प्रायः प्रतिदिन तीन या चार अतिथि (श्रावक) भोजन करते थे। ये बड़े उत्साहसे मेरा अतिथि-सत्कार करने लगे। इनके समागमसे स्वाध्यायमें मेरा विशेष काल जाने लगा। श्री मोतीलालजी वर्णी भी यहीं आ गये। उनके आदेशानुसार मैंने बुधजन छहढाला कण्ठस्थ कर लिया। अंतरंगसे जैनधर्मका मर्म कुछ नहीं समझता था। इसका मूल कारण यह था कि इस प्रान्तमें पद्धतिसे धर्मकी शिक्षा देनेवाला कोई गुरु न था। यों मन्दकषायी जीव बहुत थे, व्रत-उपवास करने में श्रद्धा थी, घर-घर शुद्ध भोजनकी पद्धति चालू थी, श्रीजीके विमान निकालनेका पुष्कल प्रचार था, विमानोत्सवके समय चारसौ पाँचसौ साधर्मियोंको भोजन कराया जाता था, दिनमें श्री जिनेन्द्रदेवका अभिषेक-पूजन गानविद्याके साथ होता था, लोग गानविद्यामें अतिकुशल थे व झाँझ-मँजीरा, ढोल आदि बाजोंके साथ श्रीजिनेन्द्रदेवकी पूजा करते थे। इतना
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