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________________ बरुआसागरसे सोनागिरि 411 श्रीमान् सेठ ख्यालीरामजीने १००१, श्रीमान् गयासीलाल जी चौधरी बरुआसागरने १००१, श्रीमान् सेठ जानकीप्रसाद सुन्दरलाल जीने १२५१, श्रीमान् नन्हूमल्लजी अग्रवाल झाँसी ने ११०१, श्रीमान् सि. छोटेलाल जी खिसनीने १००१, श्रीमान् सिं. भरोसेलाल जी मगरपुरने १००१, श्री गोमतीदेवी ताजगंज आगराने ५०१, श्री दुर्गादेवी लाला कैलाशचन्द्र अग्रवाल की मातेश्वरी आगराने ५०१ और श्री श्रेयांसकुमारजी की धर्मपत्नी ललिताबाई बरुआसागर ने ५०१ एक मुश्त दिये। इसके सिवा फुटकर चन्दा भी हुआ। सब मिलाकर २५००० के लगभग विद्यालय का ध्रौव्यफण्ड हो गया। इस प्रकार विद्यालय स्थायी हो गया। मुझे भी एक शिक्षायतन को स्थिर देख अपार हर्ष हुआ। वास्तव में ज्ञान ही जीवका कल्याण करनेवाला है, परन्तु यह पञ्चमकालका ही प्रभाव है कि लोग उससे उदासीन होते जा रहे हैं। इस प्रान्त में इतने द्रव्य से कुछ नहीं होता । यह प्रान्त प्रायः अशिक्षित है। यहाँ तो पाँच लाख का फण्ड हो तब कुछ हो सकता है, पर वह स्वप्न है। अस्तु, जो भगवान् वीरने देखा होगा, सो होगा। यहाँ से प्रस्थान कर झाँसीकी ओर चल पड़े। बरुआसागरसे सोनागिरि बरुआसागर से चलकर वेत्रवती नदी पर आये। स्थान बहुत ही रम्य है। साधुओं के ध्यान योग्य है। परन्तु साधु हो तब न। हम लोगों ने साधुओं का अनुकरण कर रात्रि बिताई। पश्चात् झाँसी आये। सेठ मक्खन लालजी के बंगलेपर ठहरे। आप बहुत ही योग्य हैं। यहाँ तीन दिन रहे । आनन्दसे काल गया। आपके यहाँ दो दिन सभा हुई। जनता अच्छी आई। आपने एक पीली कोठी और उसी से मिली हुई मन्दिर की जमीन लेकर एक कलाभवन खोलने की घोषणा कर दी और उसके चलाने के लिए तीन सौ मासिक सर्वदाके लिए दान कर दिया। साथ ही लगे हाथ उसकी रजिस्ट्री भी करा दी। यहाँ से चलकर दो दिन बीच में ठहरते हुए दतिया आ गये और यहाँ से चलकर श्रीसोनागिरिजी आ गए। पर्वत की तलहटी में मदूनावालों की धर्मशाला में ठहर गये। ऊपर जाकर मन्दिरों की वन्दना की। मन्दिर बहुत ही मनोज्ञ तथा विस्तृत हैं। यहाँ पर मन्दिरों में तेरापन्थी और बीसपन्थी आम्नायके अनुसार पूजा होती है। प्रातः काल पर्वत के ऊपर वन्दनाको गये। मार्ग बहुत ही स्वच्छ और विस्तृत है। प्रत्येक मन्दिर पर क्रमांक पड़े हुए हैं तथा जिन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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