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________________ 410 मेरी जीवनगाथा सिद्धचक्र विधान कराया, जिससे धर्मकी महती प्रभावना हुई । इसी उत्सवके समय त्यागी सम्मेलन भी हुआ, जिसमें ५० त्यागी महाशय पधारे थे । सम्मेलन का कार्यक्रम प्रभावोत्पादक था । प्रातःकाल ४ बजे प्रार्थना होती थी । अनन्तर एक त्यागी महाशय का संक्षिप्त भाषण होता था । फिर सब सामूहिक रूप में बैठकर सामायिक करते थे । शारीरिक क्रियाओं से निवृत्त होने के बाद आठ बजे से शास्त्रप्रवचन होता था । मध्याहन में भोजनोपरान्त सब सामूहिक रूप से सामायिक करते थे। फिर कुछ तत्त्वचर्चा या भाषण आदि होते थे और संध्या के समय भी पूर्ववत् सामायिक तथा भाषण होते थे । भारतवर्षीय दि. जैन व्रती सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन भी श्री भगत सुमेरुचन्द्र जी जगाधरी के सत्प्रयत्न से इसी समय हुआ था । आप उत्साही त्यागी हैं । ३३ वर्ष की अवस्था से ब्रह्मचर्यव्रत का पालन कर रहे हैं। इसी त्यागी सम्मेलन के आकर्षण से गया से श्री विदुषी पतासी बाईजी का भी शुभागमन हुआ था । आपकी व्याख्यान शैली बहुत मार्मिक है। आपके प्रभाव से स्त्री-समाजने हजारों रुपया दान में दिये तथा बरुआसागर में एक कन्या पाठशाला भी स्थापित कर दी । इसी समय विद्वत्परिषदका अधिवेशन भी हुआ, जिसमें पं. कैलाशचन्द्रजी बनारस, व्याख्यानभूषण तुलसीरामजी बड़ौत, प्रशमगुणपूर्ण पं. जगन्मोहन लाल जी कटनी, पं. राजेन्द्रकुमार जी मथुरा, प्रशममूर्ति पं. दयाचन्द्रजी सागर तथा पं. चन्द्रमौलिजी आदि विद्वान् पधारे थे। श्रीमान् सिद्धान्तमहोदधि पं. बंशीधरजी इन्दौरका भी शुभागमन हुआ था । परन्तु अचानक आपका स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण जनता आपकी मार्मिक तत्त्वविवेचना से वंचित रही । इसी अवसर पर बाबू रामस्वरूप जी तथा उनकी सौ. धर्मपत्नी ज्वाला देवी ने दूसरी प्रतिमा के व्रत प्रसन्नतापूर्वक लिए और कोयला आदि के जिस व्यापार से आपने लाखों रुपये अर्जित किये थे उसे व्रती के अनुकूल न होने से सदा के लिए छोड़ दिया । सब लोगों को बाबू साहब के इस त्याग से महान् आश्चर्य हुआ। मैने भी तिथि फाल्गुन सुदी सप्तमी २४७४ को प्रातः काल श्री शान्तिनाथ भगवान् की साक्षी में आत्मकल्याण के लिए क्षुल्लक के व्रत लिये । मेरा दृढ़ निश्चय है कि प्राणी का कल्याण त्याग में ही निहित है। इसी आष्टानिका पर्व के समय यहाँ के पार्श्वनाथ विद्यालय का वार्षिक अधिवेशन भी हुआ जिसमें श्रीमान् बाबू हरिविलासजी आगराने २००१, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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