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मेरी जीवनगाथा
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बन्द था वह उग गया और यहाँ के मनुष्यों में परस्पर जो मनोमालिन्य था वह भी दूर हो गया। यहाँ तीन दिन रहकर श्रीयुत स्वर्गीय सेठ चन्द्रभानु जी के सुपुत्र के आग्रहसे साढूमल आ गया। यहाँ स्व. सेठ चन्द्रभानुजी का महान् प्रताप था। सेठजी के समय से ही यहाँ एक पाठशाला चल रही है। जीर्ण होने के कारण उसका भवन गिर पड़ा था, जिससे प्राचीन संस्थाके कार्य में रुकावट आने लगी थी। प्रयत्न करने पर ग्रामवासियों से चार हजार दो सौ पचास रुपया के लगभग चन्दा हो गया। पाठशाला में पं शीलचन्द्रजी न्यायतीर्थ अध यापक हैं। जो बहुत ही व्युत्पन्न और शान्त प्रकृतिके विद्वान् हैं । यहाँ मेरे भोजन के उपलक्ष्य में श्री हजारीलाल जी रुपचन्द्रजी टडैया ललितपुरवालों ने सागर विद्यालय को ढ़ाई सौ रुपया देने की घोषणा की। मैं यहाँ चौबीस घण्टे रहा।
यहाँ से चलकर सैदपूर आया। यहाँ भी चौबीस घंटा रहा। ब्र. चिदानन्दजी के प्रयत्न से स्थानीय पाठशाला के लिए एक हजार रुपया के वचन मिले।
सैदपुर से महरौनी आया । यहाँ मेरे आने के दो दिन पूर्व कुछ प्रमुख व्यक्तियों में भयंकर झगड़ा हो गया था जिससे वातावरण बहुत अशांत था। परन्तु प्रयत्न करने से सब प्रकार की शान्ति हो गई। रात्रिको आम सभा हुई, जिसमें मेरे सिवाय श्री ब्र. मनोहरलालजी, पं. गोविन्दरायजी तथा समगौरयाजी के सार्वजनिक भाषण हुए।
तीन दिन रहने के बाद कुम्हैड़ी पहुँचा। जब यहाँ के लिये आ रहा था तब मार्ग मे सड़क पर एक सज्जन बोले कि 'महाराज आपका कुम्हैड़ी जाना व्यर्थ है। वहाँ के श्रीमन्त वरयाजी पर आपका प्रभाव नहीं पड़ेगा। वे चिकने घड़े हैं।' सुनकर ब्र. सुमेरुचन्द्रजी ने उत्तर दिया कि 'हम लोगों को किसी पर प्रभाव नहीं डालना है और न किसी का धन चाहिये। हमारा कार्य लोगों को धर्ममार्ग दिखाना है। फिर उनकी इच्छा। हम किसी पर कोई जबर्दस्ती नहीं करते। परन्तु जब इस गाँव में पहुँचा तो वरयाजी की आत्मा पर बहुत प्रभाव पड़ा। दस मिनट की चर्चा में ही श्री चन्द्रभानजी वरया गद्गद् होकर बोले कि 'महाराज ! मैं बहुत दिन से उलझन में पड़ा था कि अपनी सम्पत्तिका कैसा उपयोग करूँ। मेरी सिर्फ दो लडकियाँ हैं। पुत्र कोई नहीं है। परन्तु आज वह उलझन सुलझी हुई दिखती है। मैं निश्चय करता हूँ कि अपनी सम्पत्ति को चार भागों में बाँट दूंगा। दो हिस्से दोनों पुत्रियों और रिश्तेदारों को, एक हिस्सा
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