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________________ मेरी जीवनगाथा 398 प्रदान कर चुके थे तथा उसीसे उस संस्थाका जन्म हुआ था। ___ इस प्रकार सागरमें बड़ी ही शान्तिमें दिन गये। यद्यपि वहाँ हमें सब प्रकार की सुविधा मिली, तो भी वहाँ से जानेकी भावना उत्पन्न हो गई और उसका कारण यह रहा कि वहाँके लोगोंसे घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया। कुटुम्बवत् स्नेह बढ़ने लगा, जो कि त्यागीके लिए बाधक है। भोजन के विषयमें लोगो ने मर्यादा का अतिक्रमण करके भी संतोष नही लिया। हम भी उनके चक्रमें आते गये। अन्ततोगत्वा यही भावना मनमें आई कि अब सागरसे प्रस्थान करना चाहिए। प्रस्थानके विरोधी श्री मुन्नालालजी वैशाखिया, सेठ भगवानदासजी तथा सिंघई कुन्दनलालजी आदि बहुत सज्जनगण थे। स्त्री-समाज सबसे अधिक विरोधी थी। यहाँ जिस दिन श्री भगवानदासजी के यहाँ भोजन था, उस दिन आपने कहा कि आप जो चाहें वह मैं करने के लिए प्रस्तुत हूँ। अब आपको इस वृद्ध अवस्थामें भ्रमण करना उचित नहीं है। उसी दिन एक हजार रुपया आपने स्याद्वाद विद्यालय बनारसको दिये तथा तीन हजार रुपया महिलाश्रम सागर को प्रदान किये। इसी प्रकार बहुत आदमियों का विचार था कि वर्णीजी यहीं रहे। परन्तु मुझे तो शनैश्चरग्रह लगा था, जिससे मैं हजारों नर-नारियोंको निराश कर आश्विन सुदी तीज सं० २००४ को सागरसे चल पड़ा। दमोहमें कुछ दिन सागरसे चलकर बहेरिया ठहरा और वहाँसे सानोदा व पड़रिया ठहरा। पड़रियामें एक दस्सा भाई हैं। उन्होंने मन्दिरके लिए चौदह सौ रुपया नगद दिये। अनन्तर शाहपुर पहुंचा। यहाँ चार दिन रहा। यहाँ पर मनुष्योंमें सुमति हैं। यह लोग चाहें तो पाठशाला क्या वृहद विद्यालय भी चला सकते हैं। यहाँ सवाई सिंघईजी बहुत सज्जन हैं। आप के यहाँ दो बार पञ्चकल्याणक हो चुके हैं। एक पञ्चकल्याणकमें गजरथ भी चला था। आपके कोई सन्तान नहीं थी। यदि आप चाहें तो पाठशालाके सब छात्रों को सन्तान बना सकते हैं। केवल चित्तवृत्तिको बदलना है, परन्तु कोई बदलनेवाला प्रबल होना चाहिए। लोगोंने कहा कि यदि आप यहाँ चातुर्मास करें तो पाठशालाके लिए पचास हजार रुपये का ध्रौव्यफण्ड हो सकता है। यहाँ एक बात विशेष हुई। यहाँ एक चर्मकार है। तीन वर्ष पहले हमने उससे कहा था कि 'भाई माँस खाना छोड़ दो।' उसने छोड़ दिया तथा शाहपुर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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