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________________ दमोहमें कुछ दिन 399 के सम्पूर्ण चर्मकारोंमें इस बात का प्रचार कर दिया कि मृत पशुका मांस नहीं खाना चाहिये। बहुतोंने जीव हिंसाका भी त्याग कर दिया। यहाँसे चलकर पथरिया आये। यहाँ एक दिन रहे। श्री पूर्णचन्द्रजीके यहाँ भोजन किया। वहाँसे चलकर सदगुवाँ आये। यहाँ एक रात्रि रहे। श्री कपूरचन्द्रजीके यहाँ भोजन किया। यहाँसे चलने के बाद दमोह पहुँचे। ग्रामके बाहर कई भद्र महाशय लेनेके लिये आये। सेठ लालचन्द्रजीके घर पर सानन्द ठहरे। आप बहुत ही सज्जन हैं। आपकी धर्मपत्नी भी कोमल प्रकृतिकी हैं। आपके यहाँ आपकी धर्मपत्नीकी बहिनका लड़का निर्मल रहता है, जो बहुत ही पटु और भद्र है। प्रतिदिन एक घण्टा दर्शन और स्वाध्याय करता है। हमारी प्रतिदिन एक घण्टा वैयावृत्य करता रहा। सेठजी बहुत विवेकी हैं। आपने पच्चीस हजार रुपया दान किया और यह कहा कि मैं जहाँ अच्छा कार्य देखूगा वहाँके लिए दे दूंगा। जिस दिन दान किया उसी दिनसे आठ आना प्रतिशत ब्याज देना स्वीकृत किया तथा यह भी प्रतिज्ञा की कि पाँच वर्ष के अन्दर इस द्रव्यको घरमें न रक्खूगा । आपकी धर्मपत्नी ने नवीन स्थापित स्वाध याय मन्दिरके लिए एक हजार रुपया दिया है तथा सेठजीने एक हजार एक रुपया स्याद्वाद विद्यालय बनारसको तथा एक हजार एक रुपया वर्णीचेयर हिन्दू विश्वविद्यालय बनारसको देना स्वीकृत किया। एक दिन सेठजी अपनी धर्मपत्नीसे बोले-'हमारा विचार तो वर्णीजीके पास रहनेका है, घर को आप सँभालो।' धर्मपत्नी ने उत्तर दिया-'घर अपना हो तो सँभालें। आप ही तक तो घर था। जब आप इतने निर्मम हो रहे हैं तब मुझे न घरसे स्नेह है, न इस नश्वर द्रव्य तथा हाड़-माँसके पिण्ड इस शरीरसे ममत्व है। मैं आपसे पहले ही त्यागने को प्रस्तुत हूँ।' सेठजी श्रवण कर गद्गद् हो गये। मैं भी आश्चर्यमें पड़ गया। मनमें आया कि इस काल में बाह्य निमित्तोंके अभाव हैं, अन्यथा अब भी बहुत मनुष्य गृहवास त्यागनेको सन्नद्ध हैं। यहाँ और भी कई मनुष्य चाहते हैं कि यदि समागम मिले तो हमलोग उस समागमसे आत्मशान्ति का लाभ लें, परन्तु वही दुर्लभ है। यहाँ पर इन्हीं दिनों में पं. मुन्नालालजी समगौरया सुपरिन्टेन्डेन्ट जैन विद्यालय सागरसे आये। दो दिन रहे। आपके व्याख्यानों को जनता ने रुचिपूर्वक सुना। सागरसे निकलनेवाले जैन प्रभात के कई ग्राहक हुये। कितने ही महाशयोंने सागर विद्यालयको एक एक दिनके भोजन खर्चका दान दिया। सिद्धान्तशास्त्री पं. फूलचन्द्रजी बनारस भी आये थे। उन्हें वर्णी ग्रन्थमाला के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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