SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जबलपुरसे सागर फिर द्रोणगिरि 387 जिससे वहाँकी संस्थाओंकी व्यवस्था ठीक हो गयी। कटनीसे चलकर विलेरी आया । यह पहले बड़ा भारी नगर था, पर आजकल उजाड़ हो गया है। यहाँपर बहुत ही सुन्दर प्राचीन मन्दिर, बावड़ी, तथा मठ है। यहाँ बाबूलालजी बहुत ही भद्र प्रकृतिके मनुष्य हैं। वही मुझे यहाँ लाये। दो दिन रहा। आम सभा हुई। श्री पन्नालालजी काव्यतीर्थ भी यहाँ पर आये। आपने बहुत ही रोचक भाषण दिया, जिसे श्रवणकर हिन्दू मुसलमानोंमें परस्पर अमिट प्रेम हो गया। यहाँसे चलकर सिहोरा पहुँचा । यहाँपर एक मन्दिर केवल पत्थरका बहुत सुन्दर बना हुआ है। उसमें संगमर्मरकी एक बहुत ऊँची वेदी बनी है। यहाँसे गोसलपुर, फिर पनागर और पश्चात् जबलपुर आ गया। तीन मास फिर रहा। गुरुकुलका जो रुपया लेना बाकी था वह एक दिनमें आ गया। यहाँपर बहुत ही सुखपूर्वक दिन गये, परन्तु उपयोगकी चंचलताने फिर मनको स्थिर नहीं रहने दिया। यहाँसे चलकर पाटन आया और पाटनसे कोनी क्षेत्र आया। यह अतिशय क्षेत्र है। एक पहाड़की तलहटीमें सुन्दर मन्दिर बने हैं। पास ही नदी बहती है। पाटनसे तीन चार मील है। नदी पारकर जाना पड़ता है। बहुत ही रमणीक और शान्तिप्रद स्थान है। मेलाका समय था। यहाँपर दो दिन रहा। इस वर्ष गत वर्षकी अपेक्षा आदमी कम आये। यदि समीपवर्ती लोग अच्छा ध्यान दें तो क्षेत्रकी बहुत कुछ उन्नति हो सकती है। यहाँसे छ: सात दिन चलकर दमोह आ गया। पाँच दिन ठहरा। लोगोंने सादर रक्खा। सवा सौ रुपया मासिक स्वाध्याय मन्दिरके लिये चन्दा हो गया। परन्तु व्यवस्था कुछ नही हो सकी। यद्यपि सेठ लालचन्द्रजी तथा सेठ गुलाबचन्द्रजी यहाँपर बहुत ही प्रतिष्ठित है। परन्तु अभी आपकी दृष्टि इस ओर नही। धन्य है उन महानुभावोंको जिनका कि द्रव्य परोपकारमें व्यय होता है। यहाँ पर सेठ लालचन्द्रजीकी धर्मपत्नीके परिणाम अति निर्मल हैं। परन्तु सेठजी की आज्ञाके बिना उन परिणामोंके अनुसार कार्य करने में असमर्थ हैं। जब मैं वहाँसे चलने लगा तब वह खोजयखेरी तक आईं और बहुत ही विषाद प्रकट किया। उसका अन्तरंग भाव दान करनेका है। सम्भव है कोई समय पाकर उसकी भावना फलवती हो जावे। ___ दमोहसे चलकर सदगुवाँ आये। यहाँ रात्रिभर निवास कर पथरिया आ गए। दो दिन रहे। यहाँ डाक्टर मोतीलाल जैन हैं और शाहपुरवाले पूर्णचन्द्रजी भी रहते हैं। उनके उद्योगसे तीस रुपया मासिक चन्दा हो गया और एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy