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________________ मेरी जीवनगाथा 386 नागपुर प्रान्तीय कौंसिलके उच्चतम पदपर हैं। आप राजनैतिक विद्वान् हैं। आपकी प्रतिभाके बलसे जबलपुरमें सदा शान्ति रहती है। आप केवल राजनीतिके ही पण्डित नहीं हैं, उच्चकोटिके साहित्यकार भी हैं। आपने रामायणके समान कृष्णायन बनाया है, जो एक अद्वितीय पुस्तक है। इतना ही नहीं, दर्शनशास्त्रमें भी आपका पूर्ण प्रवेश है। एक बार आपके सभापतित्वमें आजाद हिन्द फौजवालोंकी सहायता करने बावत व्याख्यान थे, मुझे भी व्याख्यान का अवसर मिला । यद्यपि मैं तो राजकीय विषयमें कुछ जानता नहीं, फिर भी मेरी भावना थी कि हे भगवन् ! देशका संकट टालो। जिन लोगोंने देशहितके लिये अपना सर्वस्व न्योछावर किया उनके प्राण संकटसे बचाओ। मै आपका स्मरण सिवाय क्या कर सकता हूँ। मेरे पास त्याग करनेको कुछ द्रव्य तो नहीं है, केवल दो चद्दरें हैं। इनमेंसे एक चद्दर मुकदमेकी पैरवीके लिये देता हूँ और मनसे परमात्माका स्मरण करता हुआ विश्वास करता हूँ कि यह सैनिक अवश्य ही कारागृहसे मुक्त होंगे। ___मैं अपनी भावना प्रकट कर बैठ गया । अन्तमें वह चादर तीन हजारमें नीलाम हुई। पण्डित द्वारकाप्रसादजी इस प्रकरणसे बहुत ही प्रसन्न हुए। इस तरह जबलपुरमें सानन्द काल जाने लगा। ___ शहरका कोलाहलपूर्ण वायुमण्डल पसन्द न आनेसे मैं मढ़ियाजीमें सुखपूर्वक रहने लगा। गुरुकुल भी वहीं चला गया। इन्दौरसे ब्र. फूलचन्द्रजी सोगानी आये। आपने गुरुकुलकी व्यवस्था रखनेंमें बड़ा परिश्रम किया, परन्तु अन्तमें आप चले गये। फिर जमुनाप्रसादजी पनागरवाले सुपरिन्टेन्डेन्ट बनाये गये। इनकी देखरेख में गुरुकुलकी व्यवस्था चलने लगी। आजकल पं. दयाचन्द्रजी, जो पहले बीनामें थे, प्रधान अध्यापक हैं तथा पं. प्रकाशचन्द्रजी, जो पहले बड़नगरमें थे, सुपरिन्टेन्डेन्ट हैं। काम अच्छा चल रहा है। गुरुकुलके अधिष्ठाता श्रीमान् पण्डित जगन्मोहनलालजी है। ब्र. मनोहरलालजी तथा ब्र. चम्पालालजी सेठी भी सहारनपुरमें गुरुकुलकी व्यवस्था कर जबलपुर वापिस लौट आये। आप लोगोके कई बार प्रवचन हुए, जिन्हें जनता रुचिपूर्वक श्रवण करती थी। __ जबलपुरसे सागर फिर द्रोणगिरि जबलपुरसे चित्त ऊबा तो कटनी चला गया। यहाँ एक मास रहा। विद्वत्परिषद्के समय जो ३४०००) का दान हुआ था वह सब वसूल हो गया, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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