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________________ मेरी जीवनगाथा 388 पाठशालाकी व्यवस्था ही गई। ग्राम अच्छा है। यदि यहाँके मनुष्य चाहें तो पाठशालाके लिये कुछ रुपया स्थायी हो सकते हैं। परन्तु हृदयकी उदारता नहीं है। यहाँसे चलकर शाहपुर आ गया। यह ग्राम तो प्रसिद्ध है और इसके विषयमें पहले बहुत कुछ लिख आया हूँ। यहाँ पाँच दिन रहे। अबकी बार यहाँ एक बात अपूर्व हुई। वह यह है कि लोगोंके ऊपर विद्यालयका जो रुपया बकाया था वह एक घण्टामें वसूल हो गया और कन्याशालाके लिए नवीन चन्दा हो गया। शाहपुरसे चलकर पड़रिया ग्राम आये । यहाँ पर एक लुहरीसेन का घर है जो बहुत ही सज्जन हैं। लोग उसे पूजन करनेसे रोकते हैं। बहुत विवादके बाद उसे पूजनकी खुलासी कर दी गई। यहाँसे चलकर सानौदा आये। यहाँ सात आठ घर जैनियों के हैं। मन्दिर खपरैल है। कुछ कहा गया, जिससे नवीन मन्दिर बननेके लिये दो हजार रुपयाके लगभग चन्दा हो गया। यहाँ से चलकर बहेरिया आ गये। एक जमींदारकी दहलानमें ठहर गये। यहाँ पर सागरसे पचासों मनुष्य आये, बहुत स्नेहपूर्वक कुछ देर रहे । अनन्तर सागर चले गये। हमने आनन्दसे रात्रि व्यतीत की और प्रातःकाल चलकर दस बजे सागर पहुँच गये। हजारों मनुष्योंकी भीड़ थी। शहरकी प्रधान सड़कें वन्दनमालाओं और तोरणद्वारोंसे सुसज्जित की गई थीं। शान्तिनिकुंजमें पाँच छ: दिन सुखपूर्वक रहकर यहाँसे बरखेरा गये। जिस समय सागरसे चलने लगे उस समय नर-नारियोंका बहुत समारोह हुआ। स्त्रियोंने रोकनेका बहुत ही आग्रह किया। मैने कहा-'यदि सागर समाज महिलाश्रमके लिये एक लाख रुपया देनेका वायदा करें तो हम सागर आ सकते हैं।' स्त्रीसमाजने कहा कि 'हम आपके वचनकी पूर्ति करेंगे। बरखेरा सागरसे चार मील है। स्वर्गीय सिघई बालचन्द्रजी का ग्राम है। उनके भतीजे सिंघई बाबूलालजीने उस ग्रामकी अच्छी उन्नति की है। एक बढ़िया बँगला बनवाया है। यहाँ एक दिन ठहरे और यहीं भोजन किया। यहाँसे भोजन करनेके बाद कर्रापुर चले गये। साथमें श्रीमान् क्षुल्लक क्षेमसागरजी महाराज व ब्रह्मचारी चिदानन्दजी थे। यहाँपर दो दिन रहे। पाठशालाके लिये दो हजार रुपयाके लगभग स्थायी द्रव्य हो गया। तथा एक भाईने तीन सौ आदमियोंको भोजन कराया। यहाँसे चलकर बण्डा आ गये। आनन्दसे दो दिन रहे। यहाँ स्वाध्याय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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