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________________ सागरके अंचलमें 377 जाप्य करो और छ: मासको नमक त्यागो।' साथही सेठजीने कहा कि इनकी वैय्यावृत्त्य करनेमें ग्लानि न करना। दैवयोगसे श्रीमुरलीधर का छह मासमें कुष्ट चला गया। बाबा शिवलालजीकी तपस्याका चमत्कार देखनेवाले अब तक हैं। आपका स्वर्गवास रतलाममें हुआ था। यह एक अप्रासंगिक बात आ गई। अस्तु, नैनागिरिके आस-पास जैनियोंकी बसती अच्छी है तथा सम्पन्न घर बहुत हैं। परन्तु इस ओर उनकी रुचि विशेष मालूम नहीं होती, अन्यथा यहाँ एक अच्छा विद्यालय चल सकता है। नैनागिरिसे चलकर शाहपुर आया। बीचमें बड़ा बंडा मिला। यहाँ भी पाठशालाके लिये एक हजार पाँच सौ रुपये हो गये। शाहपुरके आदमी उत्साही बहुत हैं। यहाँ पुष्पदन्त विद्यालयको पूर्वका द्रव्य मिलाकर बीस हजार रुपयाका फण्ड हो गया। विद्यालयके सिवा यहाँपर एक चिरोंजाबाई कन्याशालाके नामसे महिला पाठशाला भी खुल गई। इसकी स्थापनाका श्रेय श्रीपतासीबाई गयाको है। आपकी प्रवृत्ति इतनी निर्मल है कि देखनेसे प्रशम मूर्तिका दर्शन हो जाता है। आप स्वयं दान देती हैं और अन्यसे प्रेरणा कर दिलाती हैं। आपने पाँच सौ मनुष्य एवं स्त्रियोंके बीच व्याख्यान देकर सबके मनको कोमल बना दिया, जिससे कुछ ही समयमें पचास रुपया मासिकका चन्दा हो गया। अनन्तर पटनागंजके मन्दिरोंके दर्शनके लिए आये। जो कि रहली ग्रामकी नदी के ऊपर हैं। यहाँ पर तीन दिन रहे फिर दमोहको चले गये। वहाँसे श्रीकुण्डलपुर गये। यहाँपर परवार सभा का उत्सव था, जिसमें बड़ी-बड़ी स्पीचें हुईं। कुछ लोग तो यहाँ तक जोशमें आये कि एक लाख रुपया इकट्ठा कर एक बृहत् शिक्षासंस्था स्थापित करना चाहिए। जोशमें आकर सबने इस बातकी प्रतिज्ञा की, पर अन्तमें कुछ भी नहीं हुआ। धीरे-धीरे सबका जोश ठण्डा हो गया। कटनीमें विद्वत्परिषद् कुण्डलपुरसे चलकर कटनी आये। मार्ग विषम तथा जंगलका था, अतः कुछ कष्ट हुआ। यहाँ एक मास रहे। विमानजी थे, जिससे अच्छा समारोह हुआ। भारतवर्षीय दि. जैन विद्वत्परिषद्का प्रथम अधिवेशन हुआ, जिसमें अनेक विद्वान पधारे थे। अध्यक्ष श्रीमान् पं. बंशीधरजी साहब थे, जो कि अपूर्व प्रतिभाशाली हैं। आपको धर्मशास्त्रका अगाध बोध है। आपकी प्रवचनशैली अत्यन्त रोचक है। आपके व्याख्यानका जनतापर अपूर्व प्रभाव पड़ता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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