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________________ मेरी जीवनगाथा 376 एक घण्टामें मन्दिरोंके दर्शन हो जाते हैं। यहाँ एक पुराना मन्दिर है, जिसमें प्राचीन कालकी बहुत सुन्दर मूर्ति है। मन्दिरके दर्शन कर नीचे आइये तब एक सरोवर है, जिसके मध्यमें सेठ जवाहरलाल मामदावालोंने एक मन्दिर बनवाया है, जिसे देखकर पावापुरके जल मन्दिरका स्मरण हो आता है। उसके दर्शन करनेके बाद एक बड़ा भारी मकान मिलता है जो कि श्रीमान् मलैया शिवप्रसाद शोभाराम बालचन्द्रजी सागरका बनवाया हुआ है और जिसमें पचास छात्र सानन्द विद्याध्ययन कर सकते हैं। इस क्षेत्रपर श्रीस्वर्गीय दौलतराम वर्णी पाठशाला है, जिसमें बीस छात्र अध्ययन करते हैं। श्रीस्वर्गीय दौलतरामजी वर्णी एक बहुत ही विद्वान् महात्मा थे। आपके विषयमें पहले बहुत कुछ लिख आया हूँ| इनका समाधिमरण इसी क्षेत्रपर हुआ था। आपके गुरु श्रीबाबा शिवलालजी थे, जो बड़े तपस्वी थे। आपके विषयमें भी पहले बहुत कुछ लिख आया हूँ। फिर भी पाठकोंको आपके तपचरणकी एक बात सुनाना चाहता हूँ। वह इस प्रकार है- श्रीमुरलीधर गोलापूर्व अमरमऊके रहनेवाले थे। बादमें नागपुर चले गये। वहाँपर उन्होंने एक हजार रुपया पैदा कर लिया। वह पुराण लिखते थे और बड़ी विनयके साथ लिखते थे। एक बार उन्हें सर्दी हो गई। उन्होंने नाक छिनकी तो नाकका कुछ पानी दवातमें गिर गया। उन्होंने लोभवश वह स्याही नहीं फेंकी। उसीसे वह लिखते रहे। अन्तमें उनके यह भाव हुए कि लिखनेमें बड़ा कष्ट होता है और बड़े परिश्रमसे एक दिनमें एक रुपयाका लिख सकते हैं। चलो सट्टामें रुपया लगा देवें, कुछ दिनमें एक हजारके दस हजार रुपये हो जावेंगे। लालचमें पड़कर उन्होंने एक हजार रुपया गँवा दिये । अन्तमें दुःखी होकर सहारनपुर चले गये। वहाँपर उनकी एक माँ, जो अन्धी थी, उनके साथ रह गई। खुरजा में उन्हें सब प्रकारकी सुविधा थी। वहाँके प्रसिद्ध स्वर्गीय सेठ उनकी सब सहायता करते थे। मैं भी उन दिनों खुरजामें ही अध्ययन करता था। श्रीमुरलीधरजीको कुष्ट हो गया। मैंने एक दिन कहा- 'भाई साहब ! इसकी दवा नहीं करते। आप बोले-'मेरे इसी जन्मका फल है।' मैंने पूछा-'क्या बात हैं ?' तब आपने सब कहानी सुनाई। वही मुरलीधर जब बमराना आये, तब बाबू शिवलालजीने कहा- भैया ! अनर्थ तो बहुत हो गया, परन्तु कुछ चिन्ताकी बात नही। इस मन्त्रका स्मरण करो और परिणाामोंकी निर्मलता रखो। यदि आपकी धर्ममें श्रद्धा है तो छ: मासमें आपका रोग चला जावेगा। 'ऊँ नमो भगवतेऽर्हते केवलिने, इत्यादि मन्त्रका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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