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मेरी जीवनगाथा
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विद्वानोंमें श्री पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री प्रधानाध्यापक स्याद्वाद विद्यालय काशी भी थे। आपका व्याख्यान बहुत ही मर्मस्पर्शी और इतिहासकी गवेषणापूर्ण होता है। आपने अचेलक धर्मपर एक बहुत ही उत्तम पुस्तक लिखी है। श्रीमान् पं. महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य भी पधारे थे, जो आजकल साहु शन्तिप्रसादजी द्वारा बनारसमें स्थापित भारतीय ज्ञानपीठके प्रधान कार्यकर्ता हैं। मथुरासे पं. राजेन्द्रकुमारजी, जो कि दिगम्बर भारतीय संघमें मंत्री हैं, आये थे। आपके द्वारा जैनधर्मका कितना विकास हुआ, यह जैनीमात्र जानते हैं। आप बहुत ही कर्मठ व्यक्ति हैं। मथुरामें संघभवन, सरस्वतीसदन आदि आपके ही प्रयत्नसे निर्मित्त हुए हैं। आप शास्त्रार्थ करनेमें अत्यन्त कुशल हैं तथा संघ-संचालन करनेमें आपकी बहुत ख्याति है। आपका संघ थोड़े समय में दि. जैन महासभा और दि. जैन परिषद्के समान प्रख्यात हो गया। सागरसे पं. दयाचन्द्रजी साहब, जो कि जैन सिद्धांतके अच्छे वक्ता हैं और समस्त धर्मग्रन्थ जिन्हें प्रायः कण्ठस्थ हैं, आये थे। तथा बनारससे पण्डित फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री भी, जो कि करणानुयोगके निष्णात और मर्मज्ञ पण्डित हैं, आये थे। आप तो विद्वत्परिषद्के प्राण ही हैं। यदि यह परिषद् परस्पर प्रेमपूर्वक कार्य करती रही, तो इसके द्वारा समाजका बहुत कल्याण हो सकता है और जो 'मैं, तू' के चक्रमें पड़ गई तो क्या होगा सो भविष्यके गर्भ में हैं।
यहाँ पर तीन दिन विद्वत्परिषद्की बैठकें हुई, धर्मकी बहुत प्रभावना हुई तथा एक बात नवीन हुई कि पण्डित महाशयोंने दिल खोलकर परिषद के कोषको स्थायी सम्पत्ति इकट्ठी कर दी। आशा है कि यदि यह विद्वद्वर्ग इस तरह उदारता दिखाता रहा तो कुछ समय में ही परिषद् वास्तवमें परिषद् हो जावेगी। परिषद्को अच्छी सफलता मिली। यदि कोई दोष देखा तो यही कि अभी परस्परमें तिरेसठपनाकी त्रुटि है। जिस दिन यह पूर्ण हो जावेगी उस दिन परिषद् जो चाहेगी, कर सकेगी। असम्भव नहीं, परन्तु कालकी आवश्यकता है। इस श्लोककी ओर ध्यान देनेकी भी आवश्यकता है
'अयं परो निजः वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।। इसमें अर्ध श्लोक तो हेय है और अर्ध ग्राहृा है। आशा है ये लोग स्वयं विवेचक हैं, शीघ्र ही इसे अपनावेंगे। जिस दिन इन महाशयोंने अपनी प्रवृत्तिमें इसे तन्मय बना लिया उस दिन जगत्का उद्धार करना कोई कठिन काम नहीं,
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