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________________ मार्गमें 367 साहू शान्तिप्रसादजी अत्यन्त सादी वेषभूषामें रहते हैं। मैं जिस दिन वहाँसे चलनेवाला था। उस दिन बिहारके गवर्नर आपके यहाँ आये थे। बहुत ही धूमधाम थी, परन्तु आप उसी वेषमें रहे जिसमें कि प्रतिदिन रहते थे। जो-जो वस्तुएँ आपके यहाँ बनती थीं उनकी एक प्रदर्शनी बनाई गई थी। आपके छोटे पुत्रने मुझसे कहा-'चलो आपको प्रदर्शनी दिखावें ।' मैं साथ हो गया। सर्व प्रथम कागजकी बात आई, वहाँ कुछ बाँस पड़े थे। वह बोला-'समझे, यह बाँस है। इसके छोटे-छोटे टुकड़े कर बुरादा तैयार किया जाता है। फिर लुगदी तैयार की जाती है। फिर उसे सफेद बनाया जाता है।' तात्पर्य यह कि उसने बड़ी सरलतासे कागज बनानेकी पूरी प्रक्रिया शुरूसे अन्त तक समझा दी। इसी प्रकार सीमेन्ट तथा शक्कर आदि बनानेकी व्यवस्था अच्छी तरह समझा दी। मैं बालककी बुद्धिकी तीव्रता देखकर बहुत ही प्रसन्न हुआ। ऐसे होनहार बालक अन्यत्र भी सुरक्षित रहते हैं। ऐसी ही बुद्धि उनकी होती है। बल्कि किन्हीं-किन्हींकी इनसे भी अधिक होती हैं, परन्तु उन्हें कोई निमित्त नहीं मिलता। मैं चार दिन वहाँ रहा, आनन्दसे समय बीता। आपने एक गाड़ी और एक मुनीम साथ कर दिया, जो सागर तक पहुंचा गया था। आपने बहुत कहा'सागर मत जाओ।' परन्तु उदयके समक्ष कुछ न चली। वहाँसे चलकर दस दिन बाद बनारस आ गया। चालीस मील पहलेसे बाबू रामस्वरूपजी बरुआसागरसे आ गये। बनारस सानन्द पहुँच गये। वहाँ पर स्याद्वाद विद्यालय है। उसका उत्सव हुआ । चार हजार रुपयाका चन्दा हो गया। पं. कैलाशचन्द्रजी प्रधानाध्यापक हैं जो बहुत योग्य व्यक्ति हैं। पं. फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री भी यहीं रहते हैं। कटनीसे पं. जगन्मोहनलालजी शास्त्री और सागरसे पं. मुन्नालालजी रांधेलीय तथा श्री पूर्णचन्द्रजी बजाज भी आ गये। छात्रोंके व्याख्यान अत्यन्त रोचक हुए। यहाँ पर श्रीगणेशदासजी व श्रीमधुसूदनजी बड़े सज्जन हैं । बाबू हर्षचन्द्रजी स्याद्वाद विद्यालयके अधिष्ठाता हैं और बाबू सुमतिलालजी मंत्री। दोनों ही व्यक्ति बहुत योग्य तथा उत्साही हैं। परन्तु हम एकदम ही अयोग्य निकले कि संस्कृत विद्याका केन्द्र त्यागकर 'पुनर्मूषको भव' की कथा चरितार्थ करनेके लिये सागरको प्रस्थान कर दिया और बनारसकी हद्द छोड़नेके बाद दसमी प्रतिमाका व्रत पालने लगे। चार दिनके बाद मिर्जापुर पहुँच गये। वहाँ पर दो दिन रहे। पश्चात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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