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________________ मेरी जीवनगाथा 366 जाने दिया। यहाँ पण्डित गोविन्दरायजी हैं जो बहुत ही सज्जन हैं, सुबोध हैं। आपकी धर्मपत्नी सागरकी लड़की है। आपके सुपुत्र भी पढ़नेमें बहुल योग्य हैं। यहाँ श्रीजगन्नाथप्रसादजीने पच्चीससौ रुपया दान देकर एक औषधालय खुलवाया है। यहाँसे चलकर रफीगंज आये, दो दिन ठहरे। यहाँपर मन्दिर बन रहा था, उसके लिये पाँच हजार रुपया का चन्दा हो गया। यहाँसे चलकर औरंगाबाद आया। यहाँ पर गयावाले श्रीदानूलालजी सेठीका बड़ा मकान, है, उसीमें ठहरे। आनन्दसे दिन बीता। रात्रिको रामधुन सुनी। रामधुनवाले ऐसे मग्न हो जाते हैं कि उनको अपने शरीरकी भी सुध बिसर जाती है। यहाँसे चलकर कुछ दिन बाद डालमियानगर आ गये। यहीं पर श्रीमान् साहु शान्तिप्रसादजी साहब रहते हैं। आप बहुत ही सुयोग्य और धार्मिक व्यक्ति हैं। यहाँ पर आपके कई कारखाने हैं- शक्कर मिल, सिमेन्ट मिल, कागज मिल आदि। आपके विषयमें पहले लिख आया हूँ। आपने छ: लाख रुपयेसे अपनी स्वर्गीय माताकी स्मृतिमें भारतीय ज्ञानपीठ संस्था खोली है, जिसका कार्यालय बनारसमें है और उसके प्रबन्धकर्ता पं. महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य हैं। आपके द्वारा अनेकों छात्रोंको मासिक छात्रवृत्ति मिलती है। भारतवर्षीय जैन परिषद्की जो विशेष उन्नति हुई है वह आपकी ही उदारताका फल है। आपके प्राइवेट सेक्रेटरी बाबू लक्ष्मीचन्द्रजी हैं जो इंग्लिश तथा अन्य विषयके भी एम.ए. हैं। आपकी धर्मपत्नी ग्रेजुएट हैं। आपका स्वभाव अत्यन्त सरल और दयालु है। श्रीशान्तिप्रसादजीके धार्मिक कार्यों में शुभ सम्मतिदाता बाबू अयोध्याप्रसादजी गोयलीय हैं, जो एक विशिष्ट व्यक्ति है। आपकी सम्मतिसे अनेक धर्मकार्यों में प्रगति हो रही है। आप अनेकान्त पत्रके कितने ही वर्ष प्रबन्धक रह चुके हैं। अब पुनः आपने उस पत्रको अपने हाथमें अपनाया है, इसलिए संभव है पत्रकी विशेष उन्नति होगी। पत्रके सम्पादक श्री पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार हैं। यदि कोई श्रीमान् इनके संकलित सहित्यको प्रकाशित करता तो बहुत नवीन वस्तु देखनेंमें आती, परन्तु श्रीमानोंकी दृष्टि अभी इस ओर झुकी नहीं। श्री मुख्तार साहबको दो कार्यकर्ता अत्यन्त कुशल मिले हैं। जिनमें एक तो श्री पण्डित दरबारीलालजी न्यायाचार्य है , जिन्होने न्यायदीपिका आदि कई ग्रन्थोंको नवीन पद्धतिसे मुद्रित कराया। दूसरे पण्डित श्रीपरमानन्दजी शास्त्री हैं जो अतीव कर्मठ व्यक्ति हैं। यदि आपका कार्यालय बनारस जैसे स्थान में होता तो जनता का बहुत ही उपकार होता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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