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सागरकी ओर
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कि पार्श्वप्रभुके पादमूलका त्यागकर 'पुनर्मूषको भव' का उपाख्यान चरितार्थ किया। उपाख्यान इस प्रकार है-'एक साधुके पास एक चूहा था। एक दिन एक बिल्ली आई। चूहा डर गया। डरकर साधु महाराजसे बोला-भगवन् ! "मार्जाराद विभेमि', साधु महाराजने आशीर्वाद दिया-'मार्जारो भव', इस आशीर्वादसे चूहा बिलाव हो गया। एक दिन बड़ा कुत्ता आया, मार्जार डर गया और साधु महाराजसे बोला-'प्रभो ! शुनो विभेमि,' साधु महाराजने आशीर्वाद दिया। 'श्वा भव' | अब वह मार्जार कुत्ता हो गया। एक दिन वनमें महाराजके साथ कुत्ता जा रहा था। अचानक मार्गमें व्याघ्र मिल गया। कुत्ता महाराजसे बोला-'व्याघ्राद् विभेमि।' महाराजने आशीर्वाद दिया-'व्याघ्रो भव' । अब वह व्याघ्र हो गया। जब व्याघ्र तपोवनके सब हरिण आदि पशुओंको खा चुका, तब एक दिन साधु महाराजके ही ऊपर झपटने लगा। साधु महाराजने पुनः आशीर्वाद दे दिया- 'पुनरपि मूषको भव।'
यही अवस्था हमारी हुई। शिखरजीमें (ईसरीमें) सानन्द धर्मसाधन करते थे, किन्तु लोगोंके कहनेमें आकर फिरसे सागर जानेका निश्चय कर लिया। इस पर्यायमें हमारी यह महती भूल हुई, जिसका प्रायश्चित्त फिरसे वहीं जानेके सिवाय अन्य कुछ नहीं । चक्रमें आ गया।
हीरालालने बहुत कुछ कहा कि बुन्देलखण्डी मनुष्योंका स्थान-स्थानपर अपमान होता है। इससे मुझे कुछ स्वदेशाभिमान जागृत हो गया और वहाँके लोगोंका कुछ उत्थान करनेकी मानता उठ खड़ी हुई। जब मैं चलने लगा तब गिरीडीहकी समाजको बहुत ही खेद हुआ। खेदका कारण स्नेह ही था। श्रीकालूरामजी मोदी और बाबू रामचन्द्रजीका कहना था कि ये सब संसारके कार्य हैं। होते ही रहते हैं। मानापमान पुण्य-पापोदयमें होते हैं। दूसरेके पीछे आप अपना अकल्याण क्यों करते हैं ? पर मनमें एक बार सागर आनेकी प्रबल भावना उत्पन्न हो चुकी थी, अतः मैंने एक न सुनी।
मार्गमें ईसरीसे प्रस्थान करनेके समय सम्पूर्ण त्यागीवर्ग एक मील तक आया । सबने बहुत ही स्नेह जनाया तथा यहाँ तक कहा-'पछताओगे। परन्तु मुझ मूढ़ने एक न सुनी। बाबू धन्यकुमारजी बाढ़वालोंने भी बहुत समझाया, परन्तु मैंने एककी न सुनी और वहाँसे चलकर दो दिन बाद हजारीबागरोड आ गया। यहाँ पर दो दिन रहा। बाद कोडरमा पहुँच गया। यहाँ पर चार दिन तक नही
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