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________________ मेरी जीवनगाथा 358 पूर्तिके लिये नहीं है। किन्तु धर्मकी परिपाटी चलानेवाली योग्य सन्तानकी उत्पत्तिके लिये है, अतः ऋतुकालके अनन्तर ही विषय-सेवन करेंगे और वह भी पर्वके दिन छोड़कर। साथ ही यह भी नियम किया था कि जब हमारे दो सन्तानें हो जावेंगी। तबसे विषय-वासनाका बिलकुल त्याग कर देवेंगे। दैवयोगसे हमारे एक सन्तान चौबीस वर्षमें हुई है और दूसरी बत्तीस वर्ष में | अब आठ वर्ष हो गये तबसे मैं और मेरी धर्मपत्नी दोनों ही ब्रह्मचर्यसे रहते हैं। इस समय मेरी आयु चालीस वर्षकी और मेरी धर्मपत्नीकी छत्तीस वर्षकी है। ये मेरे दोनों बालक बैठे हैं तथा यह जो पासमें बैठी है, धर्मपत्नी है। अब हम दोनोंका सम्बन्ध भाई-बहनके सदृश हैं| आप लोग हम दोनोंको देखकर यह नहीं कह सकेंगे कि ये दोनों स्त्री-पुरुष हैं। यदि आप लोग अपना कल्याण चाहते हों तो इस व्रतकी रक्षा करो। मेरी बात मानों, जब सन्तान गर्भमें आजावे तबसे लेकर जब तक बालक माँका दुग्धपान न छोड़ देवे तब तक भूलकर भी विषय-सेवन न करो। बालकके समक्ष स्त्री से रागादिमिश्रित हास्य मत करो। बालकोंके सामने कदापि स्त्रीसे कुचेष्टा मत करो, क्योकि बालकोंकी प्रवृत्ति माता-पिताके अनुरूप होती है, अतः ऐसा निर्मल आचरण करो कि तुम्हारी सन्तान वीर बने। मेरी समझसे वीरप्रभुके निर्वाणोत्सव देखनेका यही फल है।' __ इस तरह उनकी रामकहानी सुनकर कई लोग गद्-गद हो गये और कहने लगे कि हम भी यह अभ्यास करेंगे। वास्तवमें देखा जाय तो बहुत अयोग्य सन्तानकी अपेक्षा अल्प ही योग्य सन्तान उत्तम होती है। आज भारतवर्षमें ४० करोड़ आदमी हैं। यदि उनमें ४० ही निरपेक्ष होते तो भारतका कभी का उत्थान हो जाता। मेरे कहनेका यह तात्पर्य नहीं कि भारतमें विज्ञानी नहीं, पंडित नहीं, वैरिस्टर नहीं, धनिक नहीं, राजा नहीं, शूर नहीं, हजारोंकी संख्यामें होंगे। परन्तु जिन्हें निरपेक्ष कहते हैं उनकी गिनती अल्प ही होगी। इस समय सबसे प्रमुख तथा चालीस कोटि ही जनताका नहीं, अपितु समस्त विश्वका हित चाहनेवाले गाँधी महात्माके सदृश यदि कुछ नररत्न यहाँ और होते तो क्या भारतका उत्थान असंभव था। श्रीयुत पं. जवाहरलाल नेहरू, देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद, सरदार बल्लभभाई पटेल तथा आचार्य कृपलानी आदि बहुतसे नररत्न भारतवर्षमें है, जिनके पुरुषार्थसे ही आज हम भारतवर्षको आत्मीय समझने लगे हैं। स्वराज्यके दर्शन हमें इन्ही लोगोंके प्रयत्नसे हुए हैं। अस्तु, यह तो लौकिक स्वराज्यकी बात रही, इससे भी अधिक आवश्यकता हमें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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