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वीर-निर्वाणोत्सव
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रहती है।
___ यह कलिकाल है। इसमें राजा विषयी और अविवेकी हो गये। राजा लोग अपनी विषयाभिलाषा की पूर्तिके लिये प्रजाका कष्ट नहीं देखते और न अविवेकके कारण वे अच्छे-बुरेकी पहिचान ही रखते हैं। खल मनुष्य अपनी चापलूसी द्वारा राजबल्लभ बन जाते हैं। पर न्यायनीतिसे चलनेवाले सज्जन सदा अप्रिय बने रहते हैं। एक कविने इन अविवेकी राजाओं और उनके कर्मचारियोंकी अन्तर्व्यवस्था एक अन्योक्ति द्वारा बहुत सुन्दर रीतिसे कही है
'रे रे रासभ भूरिभारवहनात् कुग्रासमश्नाति किं राजाश्वावसतिं प्रयाहि चणकाभूसान् सुखं भक्षय । ये ये पुच्छभृतो हया इति वदन् तत्राधिकारे स्थिताः
राजा तैरुपदिष्टमेव मनुते सत्यं तटस्थाः परे।।' एक आदमी गर्दभसे कहता है कि हे गर्दभ ! तुम इतना भारी बोझा ढोकर भी खराब खाना क्यों खाते हो ? गर्दभ पूछता है तो क्या खाऊँ ? अच्छा कहाँसे पाऊँ ? आदमी कहता है कि तुम राजाके घोड़ोंकी शालामें चले जाओ। वहाँ आनन्दसे चनेका भूसा खाना । गर्दभ बोला-घोड़ोंकी शालामें प्रवेश कैसे पा सकेंगें ? आदमीने कहा-वहाँका जो अधिकारी है उसने घोड़ों की परिभाषा बना रक्खी है कि जिस-जिसके पूँछ हो वह घोड़ा है, तुम्हारे पूँछ है ही, क्यो डरते हो? गर्दभने कहा-अधिकारी बेवकूफ हैं, पर राजा तो नहीं ? जब राजा मुझे देखेगा तो पीटकर निकाल देगा। आदमीने कहा-नहीं, राजा स्वयं कुछ नहीं देखता। अधिकारी लोग जो कुछ कह देते हैं वह उसे मान लेता है। .. गर्दभने कहा- अच्छा, राजदरबारमें और भी तो लोग रहते हैं, सभी तो मुर्ख नहीं होंगे। आदमीने कहा-सबको क्या लेना-देना ? सब लोग तटस्थ हैं... | कहनेका तात्पर्य यह है कि उस राजाके यहाँ अच्छे-बुरेकी कुछ सूझ-बूझ नहीं
अतः जहाँ तक बने श्रद्धा तो निर्मल ही रक्खो, अन्य कार्य यथाशक्ति करो। प्राण जावें तो भले ही जावें परन्तु श्रद्धाको न बिगाड़ो। आप लोग यह न समझें कि मैं देशव्रतकी उपयोगिता नही समझता हूँ, खूब समझता हूँ और मेरे पञ्च पापका त्याग भी है। व्रतरूपसे भले ही न हो, परन्तु मेरी प्रवृत्ति कभी भी पापमयी नहीं होती। मेरी स्त्री भी व्रतोंका पालन करती है। वह भी कुछ-कुछ स्वाध्याय करती है। जब हम दोनोंका सम्बन्ध हुआ था, तब हम दोनोंने यह नियम किया था कि चूँकि विवाहका सम्बन्ध केवल विषयाभिलाषाकी
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