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________________ मेरी जीवनगाथा 354 कहा- 'भाई ! तुम्हें इतना बोध कहाँसे आया ?' वे बोले-'आप जैन होकर इतना आश्चर्य क्यों करते हो ? समझो तो सही, जो आपकी आत्मा है वही तो मेरी है । केवल हमारे और आपके शरीरमें अन्तर है । मेरा शरीर कुष्ट रोगसे आक्रान्त है । आपका शरीर मेरे शरीरकी अपेक्षा निर्मल है। वैसे इस विषय में विशेष रीतिसे मीमांसा की जावे जो जैसा आपका शरीर हाड़ मांसादिका पिण्ड है वैसा ही मेरा भी है । एतावता हम बुरे और आप अच्छे हैं, यह कोई नहीं कह सकता। हम भिखमंगे है और आप देनेवाले हैं, इससे आप महान् और हम जघन्य हैं, यह भी कोई अविनाभावी नियम नहीं, क्योंकि हमने अपनी कषायका शमन किया। आप श्रीपावापुरजी जाकर महावीर स्वामीका पूजन - विधान कर उत्सव करेंगे और हम भिखमंगे उनका नामस्मरण करते हुए उत्सव मनावेंगे । एतावता आप उत्कृष्ट और हम जघन्य रहे, यह भी कोई नियम नहीं । उत्सव द्वारा आपकी यही तो भावना है कि हम संसार बन्धनसे छूटें । नामस्मरणसे हमारी भी यही मनोऽभिलाषा है कि हे प्रभो इस वर्ष भोजनके संकटसे बचें। आखिर दुःखकी मूल जननी आकांक्षा जिस प्रकार मेरे भीतर है उसी प्रकार आपके भीतर भी है। वह निरपेक्षता है कि जो वास्तवमें आत्माको बन्धनसे छुड़ानेवाली है, न आपके है और न हमारे । वचनकी कुशलतासे चाहे आप भले ही मनुष्यों में निरपेक्ष बननेका प्रयत्न करें, परन्तु भीतरसे जैसे हो, आप स्वयं जानते हो। आप लोग प्रतिष्ठाके लोलुपी हो, भला यथार्थ पदार्थ कहाँ तक कहोगे ? इस लोकैषणाने जगन्मात्रको व्यामोहके जालमें फँसा दिया ।. इतना कह कर वह फिर बोला- 'यदि और कोई प्रश्न शेष रह गया हो तो पूछिये, मैं यथाशक्ति उत्तर दूँगा ।' मैने फिर प्रश्न किया- 'भाई ! आपकी यह अवस्था क्यों हो गई ? वह बोला-'मेरी यह अवस्था मेरे ही दुराचारका परिणाम है। मैं एक उत्तम कुलका बालक था । मेरा विवाह बड़े ठाट-बाटसे हुआ था । स्त्री बहुत सुन्दर और सुशील थी, परन्तु मेरी प्रकृति दुराचारमयी हो गई । फल यह हुआ कि मेरी धर्मपत्नी अपघात करके मर गई । कुछ ही दिनोंमें मेरे माता-पिताका स्वर्गवास हो गया और जो सम्पत्ति पासमें थी वह वेश्याव्यसनमें समाप्त हो गई। गर्मी आदिका रोग हुआ। अन्तमें यह दशा हुई जो आपके समक्ष हैं, परन्तु क्षेत्रपर जानेसे अब मेरी श्रद्धा जैनधर्मके प्रवर्तक अन्तिम तीर्थंकरमें हो गई। उन्हींके स्मरणसे मैं सानन्द जीवन व्यतीत करता हूँ । अतः आप आनन्दसे यात्राको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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