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________________ वीर-निर्वाणोत्सव 355 जाइये और निरपेक्ष प्रभुका निर्वाणोत्सव करिये, जिससे हम लोगोंकी अपेक्षा कुछ विशेषता हो। यद्यपि हम भी निरपेक्ष ही प्रभुका स्मरण करते हैं तो भी हमारी बात कौन माननेवाला है। मत मानों, फल तो परिणामोंकी जातिका होगा। कुष्टादि होनेसे हमारे परिणाम निर्मल न हों और आप लोगोंके हैं, यह कोई राजाज्ञा नहीं ! अब मैं आपको आशीर्वाद देता हूँ कि वीरप्रभु आपका कल्याण करें।' इतना कह कर उन दोनोंने श्रीपावापुरका मार्ग लिया। वीर-निर्वाणोत्सव __उन लोगोंके 'वीरप्रभुकी कृपासे पहुँच जावेंगे' वचन कानोंमें गूंजते रहे। जब कि अपांग लोग भी वीरप्रभुके निर्वाणोत्सवमें सम्मिलित होनेके लिये उत्सुकताके साथ जा रहे हैं तब मैं तो अपंग नहीं हूँ। रही थकावटकी बात, सो वीर प्रभु कृपासे वह दूर हो जायेगी...... इत्यादि विचारोंसे मेरा उत्साह पुनः जागृत हो गया और मैंने निश्चय कर लिया कि पावापुर अवश्य पहुँचूँगा। रात्रि गुणावा ही में बिताई । प्रातःकाल होते ही श्रीवीरप्रभुका स्मरण कर चल दिया और नौ बजे श्रीपावापुर पहुँच गया । भोजनादि कर धर्मशालामें सो गया। दोपहरके दो बजे बाद आगत महाशयोंके समक्ष श्री वीरप्रभुका गुणगान करने लगा। यह वही भूमि है जहाँ पर वीरप्रभुका निर्वाणोत्सव इन्द्रादि देवोंके द्वारा किया गया था। हम सब लोग भी इसी उद्देश्यसे आये हैं कि उन महाप्रभुका निर्वाणोत्सव मनावें । यद्यपि श्रीवीरप्रभु मोक्ष पधार चुके हैं। संसारसे सम्बन्ध विच्छेद हुए उन्हे अढ़ाई हजार वर्षके लगभग हो चुका, फिर भी इस भूमि पर आनेसे उनके अनन्त गुणोंका स्मरण हो आता है। जिससे परिणामोंकी निर्मलताका प्रयत्न अनायास सम्पन्न हो जाता है। परमार्थसे वीरप्रभुका यही उपदेश था कि यदि संसारके दुःखोंसे मुक्त होनेकी अभिलाषा है तो जिस प्रकार मैने परिग्रह से ममता त्यागी, ब्रह्मचर्य व्रतको ही अपना सर्वस्व समझा, राज्यादि बाह्य सामग्रीकी तिलाञ्जलि दी, माता-पिता आदि कुटुम्बसे स्नेह त्याग दैगम्बरी दीक्षाका अवलम्बन लिया। बारह वर्ष तक अनवरत द्वादश प्रकारका तप तपा, दश धर्म धारण किये, द्वाविंशति परिषहों पर विजय प्राप्त की, क्षपकश्रेणीका आरोहण कर मोहका नाश किया, और अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त क्षीणकषाय गुणस्थानमें रहकर इसीके द्विचरम समयमें दो और चरम समयमें चौदह प्रकृतियोंका नाश किया एवं केवलज्ञान प्राप्त किया, इसी प्रकार सबको करना चाहिये। यदि मैं केवल सिद्धपरमेष्ठीका ही स्मरण करता रहता तो यह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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