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________________ 352 मेरी जीवनगाथा I बाजारमें बेंच सकता है । तेरा भाग्य अच्छा था कि तुझे बाईजी मिल गईं। उन्होंने तेरेको पुत्रवत् पाला, उनकी वैयावृत्य करना ।' वह एक बातका निरन्तर उपदेश देते थे कि 'जो नहीं लीना काऊका तो दीना कोटि हजार ।' और भी बहुतसे उपदेश उनके थे। कहनेका तात्पर्य यह है कि जो कुछ थोड़ा बहुत मेरे पास है वह उन्हीके समागमका फल है...... इस प्रकार बाबाजीके गुण गा हुए रात्रि पूर्ण की। ईसरीसे गया फिर पावापुर सागरवालोंका तीव्र आग्रह था कि सागर आओ, इसलिये सागरके लिये प्रस्थान कर दिया । १२ मील बगोदरा तक ही पहुँच पाये कि बड़े वेगसे ज्वर आ गया। छः घण्टा बाद ज्वरका वेग कम हुआ । बगोदराके बंगला में रात्रि व्यतीत की । वहाँसे चलकर हजारीबागरोड आ गये । यहाँ पर श्री भौंरीलालजीके घर दो दिन ठहरे। आपने अच्छी तरह उपचार किया । स्वास्थ्य अच्छा हो गया । वहीं पर श्री रामचन्द्र सेठी गिरिडीहवालोंका कुटुम्ब आ गया । बहुत ही आग्रहपूर्वक आपने कहा कि 'क्यों इस पवित्र स्थानको छोड़ते हो ?' परन्तु मैंने एक न सुनी, चल दिया। मार्ग में अनेक उत्तम दृश्य देखनेके लिये मिले । आठ दिन बाद गया पहुँच गया। यहाँ पर बाबू कन्हैयालालजी तथा चम्पालालजी सेठी आदिने गया रोकनेका बहुत आग्रह किया। मैंने कहा कि एक बार सागर जानेका दृढ़ निश्चय है ।' लोगोंने कहा- 'आपकी इच्छा।' मैंने कहा- 'तीन दिन बाद चला जाऊँगा ।' तीन दिनके बाद एकदम पैरके अंगूठामें दर्द हो गया । इतना दर्द हुआ कि चलने में असमर्थ हो गया, अतः लाचार होकर मैं स्वयं रह गया । सागरसे जो लेनेके लिये आये थे वे अगत्या लौटकर सागर चले गये । पैरके अँगूठेका इलाज होने लगा। सत्तर रुपयामें एक बोतल तेल बनवाया तथा एक वैद्यराजने बहुत ही प्रेमके साथ औषधि की । एक मासके उपचारसे अँगूठामें आराम हो गया । अनन्तर गया रहनेका ही विचार हो गया वर्षाकाल गयामें सानन्द बीता । सब लोगोंकी रुचि धर्ममें अत्यन्त निर्मल हो गई। मैं तो विशेष त्यागी और पण्डित नहीं, परन्तु मेरा आत्मविश्वास है कि जो मुनष्य स्वयं पवित्र है उसके द्वारा जगत्‌का हित हो सकता है। यहाँसे मैंने कार्तिक बदी दोजको लोगोंसे सम्मति लेकर श्री वीरप्रभुकी निर्वाणभूमिके लिये प्रस्थान किया। दस मील तक जनता गई। वहीं पर श्रीमान् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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