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________________ श्री बाबा भागीरथजीका समाधिमरण 351 अच्छी वैयावृत्य की। न जाने क्यों, बाबाजी हमसे वैयावृत्य नहीं कराते थे। जिस दिन आपका देहावसान होने लगा उस दिन दस बजे तक शास्त्रस्वाध्याय सुना। अनन्तर हम लोगोंको आज्ञा दी कि भोजन करो। हमने भोजन करके सामायिक की। पश्चात् कृष्णाबाईने बुलाया कि शीघ्र आओ। हम गये, तो क्या देखते हैं कि बाबाजी भूमिपर एक लँगोटी लगाये पड़े हुए हैं। आपकी मुद्रा देखनेसे ऐलकका स्मरण होता था। हम लोग बाबाजीके कर्णों में णमोकार मन्त्र कहते रहे। पाँच मिनट बाद आँखसे एक अश्रुबिन्दु निकला और आप सदाके लिये चले गये। मुद्रा बिलकुल शान्त थी। मेरा हृदय गद्गद हो गया। शीघ्र ही बाबाजीको श्मशान ले गये और एक घण्टाके बाद आश्रममें आगये। उस दिन रात्रिमें बाबाजीकी ही कथा होती रही। ऐसा निर्भीक त्यागी इस कालमें दुर्लभ है। जबसे आप ब्रह्मचारी हुए पैसाका स्पर्श नहीं किया। आजन्म नमक और मीठाका त्याग था। दो लंगोट और दो चद्दर मात्र परिग्रह रखते थे। एक बार भोजन और पानी लेते थे। प्रतिदिन स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा और समयसारके कलशोंका पाठ करते थे। स्वयम्भूस्तोत्रका भी निरन्तर पाठ करते थे। आपका गला बहुत ही मधुर था। जब आप भजन कहते थे तब जिस विषयका भजन होता उस विषयकी मूर्ति सामने आ जाती थी। आपका शास्त्र-प्रवचन बहुत ही प्रभावक होता था। आप ही के उत्साह और सहायतासे स्याद्वाद विद्यालयकी स्थापना हुई थी। आपने सहस्रों रुपये विद्यालयको भिजवाये। भोजनकी कथा आप कभी नहीं करते थे। आपकी प्रकृति अत्यन्त दयालु रूप थी। ___आप मुझे निरन्तर उपदेश देते थे कि इतना आडम्बर मत कर। एक बारकी बात है। मैंने कहा-'बाबाजी, आपके सदृश हम भी दो चद्दर और लंगोट रख सकते हैं, इसमें कौन-सी प्रशंसाकी बात है ?' बाबाजी महाराज बोले-'रख क्यों नहीं लेते ?' मैं बोला-'रखना तो कठिन नहीं है, परन्तु जब बाजारमेंसे निकलँगा तब लोग क्या कहेंगे ? इससे लज्जा आती है। बाबाजीने हँसकर कहा-'बस, इस बलपर त्यागी बनना चाहते हो। अरे ! त्याग करना सामान्य मनुष्योंका कार्य नहीं है। एक दिन घोड़ेको नाल बँध रहे थे। उन्हें देखकर मेंढकी बोली- हमको भी नाल बाँध दो। विचारो, यदि मेंढकीको नाल बाँध दिये जावें तो क्या वह चल फिर सकेगी ? अतः अभी तुम इसके पात्र नहीं। हाँ, यह मैं अवश्य कहूँगा कि एक दिन तू भी त्यागी बन जायेगा, तू सीधा है, अच्छा है। अब इसी रूप रहना। तू इतना सरल है कि तुझे पाँच वर्षका बालक भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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