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________________ मेरी जीवनगाथा 348 सेठी चुप रहे, परन्तु जब सायंकाल हम भ्रमणके लिये जा रहे थे तब श्री खेमचन्द्रजी अधिष्ठाता हमारे साथ थे और श्रीचम्पालालजी भी भ्रमण के लिये गये थे। परस्पर वार्ता हो रही थी। इतनेमें चम्पालालजी बोले-'क्यों अधिष्ठाताजी ! आपने भगतजीके लिये मेरी यह शिकायत लिखी है कि चम्पालाल से ही आश्रममें आता है तथा इसके आनेसे आश्रमके उदासीनोंमें उदण्डताका संचार होनेकी आशंका हैं ? क्या मैं मार्गसे इतना च्युत हूँ कि मेरे सहवाससे आश्रमवासी अमार्गमें लग जावेंगे? खेदकी बात है आपने विवेक से काम नहीं लिया। मैं बहुत दिनसे आपकी हरकतको देखता हूँ, वास्तवमें आपमें मनुष्यता नहीं।' श्री खेमचन्द्रजी बोले-'आपको वचन संभाल कर बोलना चाहिए। यदि आपके सदृश मैं व्यवहार करूँ तो आप आग-बबूला हो जावेंगे। आप विद्वान् हैं, गोम्मटसारके ज्ञाता हैं, परिणामोंकी निर्मलताका भी कुछ ख्याल रखना चाहिए।' फिर क्या था सेठीजीका पारा सौ डिगरी हो गया। दोनोमें परस्पर बहुत कुछ विसंवाद हो गया। यदि मैं न होता तो संभव था परस्परमें अत्यन्त कलहाग्नि बढ़ जाती। वचनोंमें लड़ाई रही, काय तक नहीं पहुंची। इस घटनासे मेरा चित्त बहुत खिन्न हुआ। यहाँ तक कि दूसरे दिनसे मलेरिया आ गया और इतनी तेजीके साथ आया कि १०५ डिग्री तक तापमान हो जावे। वह मलेरिया पाँच वर्ष तक नहीं गया । असातोदयमें ऐसे ही निमित्त मिलते हैं। श्री खेमचन्द्रजीके व्यवहारसे मैं भी असंतुष्ट था। यहाँ पर श्रीमान् बाबा भागीरथजी थे, जो हमारे चिर-परिचित थे। उनकी मेरे ऊपर पूर्ण अनुकम्पा थी। वे निरन्तर उपदेश देते थे कि भाई जो अर्जन किया है उसे भोगना ही पड़ेगा। ज्वरके वेगकी प्रबलतासे खाना-पीना सब छूट गया। जब ज्वरका वेग आता था तब कुछ भी स्मरण नहीं रहता था। श्रीकृष्णाबाईने उस समय बहुत सहायता की तथा श्री बाबू धन्यकुमारजीने मिट्टीका प्रयोग किया। इन सबकी निरन्तर यही भावना रहती थी कि यह शीघ्र नीरोग हो जावें, परन्तु असाताके तीव्रोदयमें कुछ नहीं हो सका। सागर से सिंघईजी व उनकी गृहिणी आगई। गयासे श्री कन्हैयालालजी आ पहुँचे। साथमें कविराज भी लाये। कविराज बहुत ही योग्य थे। उन्होंने अनेक उपचार किये। परन्तु मैंने औषधिका त्याग कर दिया था, अतः जो औषधि मेरे रोगके निवारणके लिये दी जाती थी, मैं उसे लेकर पश्चात् फेंक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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