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________________ मलेरिया 349 देता था । वैद्यसे मैंने कहा कि अभी मेरे तीव्र असातोदय है, अतः आपकी औषधि निष्फल होगी । वैद्यराज बहुत ही आस्तिक थे। उन्होंने कहा- 'अच्छा' और दो दिन रहकर चले गये । उन्हीं दिनों दक्षिण देशके एक मन्त्रशास्त्री भी वहीं थे। उन्होने कहा - 'चिन्ता मत करो। हम एक मन्त्र लिखकर बाँधे देते हैं, तुम्हारा ज्वर चला जावेगा।' मैंने कहा- 'आपके मन्त्रमें शक्ति है, इसमें मुझे शंका नहीं । परन्तु मेरे तीव्र पापोदय है, अतः मेरा रोग अभी कुछ दिन रहेगा, आप व्यर्थ ही अपयश न लीजिये ।' वह बोले-'आपको जैन मंत्रकी श्रद्धा नहीं । मैंने कहा- 'भगवन् ! ऐसे वाक्य श्रीमुखसे न निकालिये। मुझे श्रद्धा है, परन्तु अभी तीव्र उदयमें दुःख भोगना ही पड़ेगा। मुझे तो इतनी श्रद्धा है कि शायद आपको भी उतनी न होगी। एक बार मुझे बड़ी शिरोवेदना हुई । मैंने श्री पार्श्वप्रभुका स्मरणकर उसे शान्त कर लिया । एक दिनकी बात है - यहीं पर एक कलकत्ताकी बाई थी । उसे हिस्ट्रिया रोग था; अचानक वह गिर पड़ी। जब होशमें आई तब मैंने कहा कि तुम पार्श्वनाथ स्वामीकी टोंकके सामनेसे दर्शन करो और प्रार्थना करो कि हे प्रभो ! अब हमें यह रोग बाधा न करे। इतनी ही हमारी प्रार्थना है। उसने हमारे कहे अनुसार आचरण किया और उसी दिनसे उसकी मूर्च्छा बन्द हो गयी । एक वर्ष बाद मिली । हमने पूछा- अब तुम्हें आराम है ? वह बोली कि उस दिनसे सानन्द रहती हूँ। कहनेका तात्पर्य यह है कि मुझे श्रद्धा तो है परन्तु तीव्र उदयका फल भोगना ही पड़ेगा । इसीसे न तो मैं औषधि खाना चाहता हूँ और न मंत्रादि विधिका प्रयोग करना चाहता हूँ।' मंत्रशास्त्री बहुत नाराज हुए, तथा जब मुझे एकसौ पाँच डिग्री ज्वर हो गया तब एक मंत्रको कपड़े में लपेटकर भुजसे बाँध दिया। मुझे कुछ भी पता नहीं चला। चार घण्टा ज्वरमें बेहोश रहता था । श्रीकृष्णाबाई और पतासीबाई माताकी तरह गीली पट्टी शिरपर रखती थीं। इस प्रकार चार घण्टाकी वेदना सहता हुआ कालक्षेप करने लगा। लोग पाठ पढ़ते थे, पर मुझे पता नहीं कि क्या हो रहा है ? वैशाखका मास था, सूरज भी तपता था, पानीकी तृषा अत्यन्त रहती थी, परन्तु इतनी बेचैनी रहनेपर भी अन्तरंग में परम पावन जैनधर्मकी श्रद्धा अचल रहती थी । श्री कन्हैयालालजी गयावालोंने सभी दरवाजोंमें खसकी टट्टियाँ लगवा दी थीं, दिनभर उनपर पानीका छिड़काव होता था, रात्रिको बराबर दो आदमी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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