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मेरी जीवनगाथा
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मार्गमें लग जाता है। तुम हमसे पृथक् होकर जहाँ जाओंगे वहाँ ही अपना काल गल्पवादमें लगाओगे। यदि वास्तवमें त्यागधर्मका स्वाद लेना चाहते हो तो सर्वप्रथम अपने अभिप्रायको निर्मल बनानेका प्रयत्न करो। पश्चात् रागादि शत्रुओंको जीतो। जैसे हमसे स्नेह छोड़ते हो वैसे अन्यसे न करना। हमने तुम्हारा कौन-सा अकल्याण किया है कि जिससे डर कर तुम रागभावके गये बिना ही विरक्त होते हो। इसके माने त्याग नहीं। इसका अर्थ तो यह है कि अब बाईजीकी वृद्धावस्था हो गई, अतः इनकी वैयावृत्य करनी पड़ेगी। वह न करना पड़े, इसलिये चलो त्यागी बन जाओ। इस प्रकारका छल कल्याणमार्गका साधक नहीं। इसका नाम त्याग नहीं, यह तो द्वेष है। अथवा तुम्हारी जो इच्छा, सो करो, परन्तु स्वांग न बनाना। जैनधर्ममें स्वांगकी प्रतिष्ठा नहीं परिणामोंकी निर्मलताकी प्रतिष्ठा है। अतः पहले परिणामोंको पवित्र बनाओ, सच्चा त्याग इसीका नाम है। जब अन्तरंगसे राग की कृशता होती है तब बाह्य वस्तु स्वयमेव छूट जाती है। सब पदार्थ भिन्न-भिन्न है, केवल हम अपने रागसे उनमें इष्ट तथा द्वेषसे अनिष्टकी कल्पना कर लेते हैं । यह हम भी जानते हैं। परन्तु अभी हमारा राग नहीं गया, इससे तुम्हारे ऊपर करुणा आती है कि इसका त्याग दम्भमें परणित न हो जावे। यदि बेटा ! तुममें राग न होता तो तुम्हारे इष्ट व अनिष्टमें हर्ष-विषाद न होता । अस्तु, हमारी तो यह सम्मति है कि जिस त्यागसे शान्ति-लाभ न हो वह त्याग नहीं, दम्भ है। तुम्हारी इच्छा जो हो, सो करो, होगा वही जो होना है। हमारा कर्तव्य था, सो उसे पूर्ण किया।'
___मैं सुनकर चुप रह गया और जो विचार थे उन्हें परिवर्तित कर दिया। वास्तवमें त्याग तो कषायके अभावमें होता है, सो तो था नहीं। इस प्रकार अनेक बार उपदेश देकर उन्होंने मुझे दम्भवृत्ति से बचाया। इससे उचित तो यह है कि हम लोगों को अन्तरंग त्याग करना चाहिए। लौकिक प्रतिष्ठाके लिए जो त्याग करते हैं वे राखके लिये चन्दन जलाते हैं। वास्तवमें यह मनुष्य मोहके उदयमें नाना कल्पनाएँ करता है, चाहे सिद्धि एककी भी न हो।
मलेरिया ईसरीमें निरन्तर त्यागीगणोंका समुदाय रहता है, भोजनादिका प्रबन्ध उत्तम है। आश्रमसे थोड़ी दूरी पर ग्रांटरोड है, जहाँ भ्रमण करनेका अच्छा सुभीता है। यहाँ पर निरन्तर त्यागियों, क्षुल्लकों और कभी-कभी मुनिमहाराजोंका भी शुभागमन होता रहता है। यहाँसे गिरिडीह पास है। बीचमें वराकट नदी
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