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________________ दम्भसे बचो 345 I यह स्थान मोक्ष प्राप्तिके लिये अद्वितीय है । आश्रमसे बाहर गिरिराजकी ओर जाइये, अटवी लग जाती है। पत्थरोंकी बड़ी-बड़ी चट्टानें हैं। उनपर बैठकर मनुष्य ध्यानादि कर सकते हैं। कोई उपद्रव नहीं, मनुष्योंका संचार नही, हिंसक जन्तु गिरिराजमें अवश्य ही निवास करते होंगे पर आजतक किसीका घात नहीं सुना गया । यह सब कुछ है, परन्तु ऐसे निर्मम मुनष्य नहीं आते, जो आत्मचिन्तन कर कुछ लाभ लेवें । दम्भसे बचो Jain Education International मुखसे कथा करना अन्य बात है और कार्यमें परिणत करना अन्य बात है । हम अन्यकी बात नहीं कहते, स्वयं इस कार्य के करनेमें असमर्थ रहे। इससे सिद्ध होता है कि कल्याणका मार्ग निमित्तमें नहीं, उपादानकारणकी भी आवश्यकता है । क्षेत्रको सम्यक् प्रकार उत्तम बनाकर यदि कृषक बीज वपन न करे तो अन्नकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, घास-फूस हो जाना अन्य बात है। हम लोग निमितकारणोंकी आयोजनामें सब पुरुषार्थ लगा देते हैं। पर उपादानकारणकी ओर दृष्टि नहीं देते। आवश्यकता इस बातकी है कि अन्तस्तत्त्वको निर्मलता के जो बाधक कारण हैं उन्हें दूर किया जावे। वास्तविक बाधक कारण क्या है, इस ओर दृष्टि नहीं देते। हम लोग निमित्तकारणोंको ही बाधक मानते हैं, इससे उन्हीको दूर करनेकी चेष्टा करते हैं। मैं स्वयंकी कथा कहता हूँ-'जब श्री बाईजी जीवित थीं, तब मैं निरन्तर यही मानता था कि यदि बाईजी न होतीं तो मैं भी आत्मकल्याणके मार्गमें निर्विध्न लग जाता ।' बाईजीका कहना था कि 'बेटा ! अभी तुम जैनधर्मका मर्म नहीं समझते।' मै एक दिन जोर देकर बोला-'बाईजी ! मैं तो अब त्यागी होना चाहता हूँ। कोई किसीका नहीं, सब स्वार्थके सगे हैं, इतने दिन व्यर्थ गये, अब मैं जाता हूँ।' बाईजी बोलीं- 'बेटा मैं नहीं रोकती, बड़ी प्रसन्नता है कि तुम आत्मकल्याणके मार्ग में जानेका प्रयत्न करते हो, परन्तु खेद इस बातका है कि तुम बात बहुत करते हो, पर करनेमें कायर हो । मनुष्य वह है जो कार्य करनेकी बात न निकाले और अन्य मनुष्य उसके कार्य को देखकर अनुमान करें कि इनके इस कार्यके करनेका अभिप्राय था। हमने तुम्हारा तीस वर्ष पोषण किया और कभी इस बातकी इच्छा नहीं रक्खी कि वृद्धावस्थामें तुम हमारी वैयावृत्य करोगे । अब हमारी अवस्था शिथिल हो गई, अतः उचित तो यह था कि प्रतिदिन हमको शास्त्रप्रवचन सुनाते, सो वह तो दूर रहा और अनधिकार चेष्टाकी बात करते हो कि हम त्यागी होते हैं । त्यागी जो होता है वह किसीसे रागद्वेष नही करता, शान्तचित्तसे आत्मकल्याणके For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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