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________________ मेरी जीवनगाथा 344 निरन्तर उद्योग करते रहते हैं। पच्चीस छात्र शिक्षा पाते हैं। कुछ सराक जातिके भी बालक हैं। यदि अच्छी सहायता मिले तो सराक जातिके एक सौ छात्र अध्ययन कर सकते हैं, परन्तु समाजकी दृष्टि अभी इस ओर नहीं। शिक्षा मन्दिरका एक निजका बोर्डिंग और विद्यालय भवन भी है। एक जलाशय भी है। दो अध्यापक निरन्तर अध्ययन कराते हैं। उदासीनाश्रममें सेठ तुलाराम गजराज वच्छराजजीने भी एक सुन्दर भवनका निर्माण कराया है। इसमें धर्मसाधन करनेके लिये कोई भी व्यक्ति निवास कर सकता है। सेठ लोगोंने स्वयं धर्मसाधन करनेके अभिप्रायसे इसका निर्माण कराया था, परन्तु परिग्रह पिशाचके आवेगमें कुछ नहीं कर सके। कृष्णाबाईने भी यहाँ एक श्राविकाश्रमकी नीव डाली थी, परन्तु परस्परके विचार विनिमयसे आपका चित्त खिन्न हो गया। इससे आपने आश्रमका विचार स्थागित कर दिया और यहाँसे उदास होकर मारवाड़ चली गई। वहाँसे श्रीमहावीरक्षेत्रमें मुमुक्षु महिलाश्रमकी स्थापना कर दी तथा अपने पासकी सब सम्पत्ति उसीमें लगा दी। प्रारम्भमें श्री पं. नन्हेलालजी शास्त्री उसमें अध्यापक थे। दस पन्द्रह बाईयाँ उसमें धर्मसाधन करती हुई शिक्षा प्राप्त करती हैं। यहाँपर वर्षाकालमें प्रायः धर्मसाधन बड़े आनन्दसे होता है। सामने दिखनेवाले हरे-भरे गिरिराजकी ऊँची चोटियों पर जब श्यामल घनघटा छा जाती है तब बड़ा ही मनोरम मालूम होता है। मेरठ प्रान्तसे लाला हुकमचन्द्रजी सलाबावाले, जो कि तत्त्वविद्यामें उत्तम ज्ञान रखते हैं, प्रायः भाद्रमासमें आ जाते हैं। लाला त्रिलोकचन्द्र खतौली, पं. शीतलप्रसादजी शाहपुर, लाला मंगलसेनजी मुबारिकपुर तथा लाला हरिश्चन्द्रजी सहारनपुर भी जब कभी आ जाते हैं। आप सब तत्त्वविद्याके प्रेमी और निर्मल परिणामोंके धारक हैं | आप लोगोंके शुभागमनसे तत्त्वचर्चा में पूर्ण आनन्द रहता है। कभी-कभी श्रीमान् चाँदमल्लजी राँची व श्रीमान् बाबू कन्हैयालालजी बजाज गयावाले भी आ जाते हैं। यहाँ पर उपयोग अच्छा लगता है। मकानमेंसे बाहर निकलते ही श्रीपार्श्वनाथकी टोंकके दर्शन होने लगते हैं, जिससे भावनाएँ निरन्तर निर्मल रहती हैं। स्वाध्यायमें भी अच्छा उपयोग लगता है, परन्तु बड़े आदमियोंको अभी एकान्तवासका स्वाद नहीं आया। परिग्रहसे विरक्ति महान् पुण्यशाली जीवके ही हो सकती है। इस पिशाचने संसारको चक्रमें ला रक्खा है। परिग्रहके भारसे बड़े-बड़े महापुरूष संयमके लाभसे वंचित रह जाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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