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________________ मेरी जीवनगाथा 336 आ गये। श्रीयुत् बाबू कन्हैयालालजीके यहाँ ठहरे। आपने बहुत ही आतिथ्य-सत्कार किया। यहाँ पर बाबू गोविन्दलालजी, चिदानन्दजी त्यागी तथा बालचन्द्रजी त्यागी बबीनावाले आ गये। यहाँ दो मन्दिर हैं-एक चौकमें और एक प्राचीन गया में। प्राचीन गयाका मन्दिर बहुत प्राचीन है। तीनसौ वर्षका है। काठका काम बहुत सुन्दर है। बाबू गोविन्दलालजी साहब इसका प्रबन्ध करते है। एक पुजारी मन्दिर की पूजा करता है । यहाँ पर एक धर्मशाला सेठ सूरजमल्लजीकी है, जिसमें महाराजोंसे लेकर साधारण मनुष्य तक ठहर सकते हैं। वर्तमानमें दस लाख लागतकी होगी। प्रबन्ध उत्तम है। यहाँ से पाँच मील बौद्ध गयाका मन्दिर है जो बहुत प्राचीन है। यहाँ पर बुद्धदेवने तपश्चर्या कर शान्तिलाभ किया था। बहुत शान्तिका स्थान है। मन्दिर भी उन्नत है। पहले इसकी जो कुछ भी व्यवस्था रही हो, परन्तु आज उस मन्दिर के स्वामी गया के महन्त हैं। मूर्तिकी दशा वैष्णव सम्प्रदायके अनुसार हो गई है और पूजा भी उसी सम्प्रदायके अनुसार होने लगी है। यहाँ बौद्ध लोग बहुत आते हैं, तिब्बत, चीन, जापान आदिके भी यात्री आते हैं और बुद्धदेव के दर्शन कर दीपावली लगाते हैं। ‘गयामें श्राद्ध करने से बीस पीढ़ियाँ तर जाती हैं'.....ऐसी किम्वदन्ती प्रसिद्ध है। जो भी हो, लोग तो कल्याणकी भावनासे दान करते हैं। लाखों रुपया प्रतिवर्ष यहाँ से दानमें आता परन्तु जैसा आता है वैसा ही चला जाता है। पहले यहाँ चौदह सौ घर पण्डोंके थे, परन्तु अब कम हो गये हैं। दो सौ घरसे अधिक न होंगे। यहाँ एक संस्कृत विद्यालय है जिसमें आचार्य परीक्षा तक पढ़ाई होती है। व्याकरण, न्याय, मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, साहित्य आदि शास्त्रोंका पठन-पाठन होता है। एक पाठशाला जैनियोंकी भी है, जिसमें नित्यनियमपूजा, छहढाला, द्रव्यसंग्रह तथा सूत्रजी तक पढ़ाई होती है। यहाँके जैनी प्रायः सम्पन्न हैं। नवीन मन्दिर की प्रतिष्ठा बड़ी धूमधामसे हुई थी। उस समय मन्दिरको एक लाख की आय हुई थी, परन्तु उसके रुपयेका उपयोग केवल बाहा कार्यों में हुआ। एक तो २५०००) का रथ बना। दूसरे उसकी सजावटकी सामग्री खरीदी गई। इसी तरह शेष रुपया व्यय हो गए। यहाँ पर पाठशालाके लिये भी पचीस हजार रुपयाका चन्दा हुआ था परन्तु उसका अभी तक योग्य रीति से उपयोग नहीं हो सका । यहाँ पर धर्मकी रुचि अच्छी है। कई घरोंमें शुद्ध भोजन होता है। आचार-विचार अच्छा है। यहाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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