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________________ गिरिराजकी वन्दना 337 I पतासीबाई एक आदर्श महिलारत्न हैं । आपकी रुचि निरन्तर व्रतपालन और स्वाध्यायमें लीन रहती हैं। हृदयकी अत्यन्त कोमल हैं। शिक्षाप्रचारके लिये बहुत कुछ दान करती रहती हैं । यहाँ एक पुस्तकालय बहुत सुन्दर है, जिसमें सब तरहके ग्रन्थ और प्राचीन वस्तुओं का संग्रह है । यहाँसे चल कर बीचमें बड़े-बड़े सुन्दर दृश्य देखनेके लिये मिले। एक धनुवा-भलुआका वन मिला जो बारह मील विस्तृत है । बीचमें एक राजा का मकान बना है। वह स्थान धर्मसाधन के लिये अति उत्तम है, परन्तु वहाँ राजा साहब केवल आरण्य पशुओंका घात करनेके लिये आते हैं । यही पुरुषार्थ आज कल इस पुण्यक्षेत्रमें रह गया है। आगे चलकर निर्मल पानीका झरना मिला, जिसका जल इतना उष्ण था कि खौलते हुए जलसे भी कहीं अधिक था । सौ गजके बाद में कुण्ड में जब वह जल पहुँचता था तब स्नान करनेके योग्य होता था । इस जलमें स्नान करनेसे खाज आदि रोग निवृत हो जाते हैं। लोगों का कहना तो यहाँ तक है कि इससे सब प्रकारके चर्मरोग दूर हो जाते हैं । यहाँसे चलकर आठ दिन बाद श्रीगिरिराज पहुँच गये। अपूर्व आनन्द हुआ । मार्गकी सब थकावट एकदम दूर हो गई। 1 1 गिरिराजकी वन्दना उसी दिन श्रीगिरिराजकी यात्राके लिये चल दिये । पर्वतराजके स्पर्शसे 1 परिणामों में शान्तिका उदय हुआ । श्रीकुन्थुनाथ स्वामी की टोंक पर पूजन की । अनन्तर वन्दना करते हुए दस बजे श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के मन्दिरमें पहुँचे। आष्टानिकपर्व था, इससे बहुत यात्रीगण वहाँ पर थे। एक घण्टा तत्त्वचर्चा होती रही। सबकी यही लालसा रही कि कब ऐसा अवसर आवे कि हमलोग भी दैगम्बरी मुद्रा धारण कर संसार बन्धनको छेदें । आत्माका स्वभाव ही ऐसा है कि वह स्वतन्त्रताको चाहता है । परतन्त्रता आत्माकी परिणति नहीं । वह तो अनादि अज्ञानताके प्रभावसे चली आ रही है। उसके द्वारा इसकी जो-जो दुर्गति हो रही है वह सर्व अनुभवगम्य है । जीव जो-जो पर्याय पाता है उसीमें निजत्व मानकर चैन करने लगता है । इन सब उपद्रवोंका मूलकारण अज्ञानता है। यह सब जानते हैं, परन्तु इसको दूर करनेका प्रयास नहीं करते । बाह्य पदार्थोंको दुःखका कारण जान उनसे दूर रहने की चेष्टा करते हैं, परन्तु वे पदार्थ तो भिन्न हैं ही - स्वरूपसे सर्वथा जुदे हैं और इसका कुछ भी सुधार बिगाड़ नही कर सकते। यह जीव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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