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________________ गिरिराजकी पैदल यात्रा 333 इच्छासे कण्ठमें सर्प डाल रहा है, परन्तु उन दोनोंमें ही जिसकी संदा एकसी वृत्ति रहती है वही योगीश्वर समभावरूपी आराममें प्रवेश करता है। ऐसे समभावरूपी क्रीडावनमें ही केवलज्ञानके प्रकाश होनेका अवकाश है। कहनेका तात्पर्य यह है कि जहाँ आत्मामें निर्मलता आ जाती है वहाँ शत्रुमित्रभावकी कल्पना नहीं होती। इसका यह तात्पर्य नहीं कि वे शत्रु-मित्रके स्वरूपको नहीं समझते हैं, क्योकि वह तो ज्ञानका विषय है। परन्तु मोहका अभाव होने से उनके शत्रु-मित्रकी कल्पना नहीं होती। इस समय ऐसे महापुरूषोंकी विरलता ही क्या, अभाव ही है, इसलिये संसारमें अशान्तिका साम्राज्य है। . जिसके मुखसे सुनो, ‘परोपकार करना चाहिए' यही बात निकलती है, परन्तु अपनेको आदर्श बनाकर परोपकार करनेकी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती । जब तक मनुष्य स्वयं आदर्श नही बनता तब तक उसका संसारमें कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ सकता। यही कारण है कि अनेक प्रयत्न होने पर भी समाजकी उन्नति नहीं देखी जाती। जैनधर्मका तीसरा सिद्धान्त मधुत्याग करना है। मधु क्या है? अनन्त सम्मर्छन जीवोंका निकाय है, मक्खियोंका उच्छिष्ट है। परन्तु क्या कहें जिहालम्पटी पुरुषोंकी बात ? उन्हें तो रसास्वादसे मतलब, चाहे उसकी एक बूंदमें अनन्त जीवोका संहार क्यों न हो जाय। जिनमें जैनत्वका कुछ अंश है, जिनके हृदयमें दयाका कुछ संचार है उनकी प्रवृत्ति तो इस ओर स्वप्नमें भी नहीं होनी चाहिये। यह कालका प्रभाव ही समझना चाहिये कि मनुष्य दिन प्रतिदिन इन्द्रियलम्पटी होकर धार्मिक व्यवस्थाको भंग करते जाते हैं और जिसके कारण समाज अवनत होती जा रही है। राजाओंके द्वारा समाजका बहुत अंशमें उत्थान होता था, परन्तु इस समयकी बलिहारी। उनका आचरण जैसा हो रहा है वह आप प्रजाके आचरणसे अनुमान कर सकते हैं। जैनियोंमें यद्यपि राजा नहीं, तो भी उनके समान वैभवशाली अनेक महानुभाव हैं और उनके सदृश अधिकांश प्रजावर्ग भी है। इसकी विशेष समालोचना आप लोग स्वयं कर सकते हैं ....... इस तरहके अनेक विकल्प उठते रहे। सिंहपुरीमें तीन दिन रहा। :७: ____सिंहपुरीसे चलकर मोगलसरायके पास एक शिवालयमें रात्रिके समय ठहर गये। स्वाध्याय द्वारा समयका सदुपयोग किया, प्रातःकाल यहाँसे चल दिये और मोगलसरायसे चार मीलकी दूरीपर एक धर्मशालामें ठहर गये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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