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________________ 332 मेरी जीवनगाथा वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जन्तवोऽन्ये त्यजन्ति श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ।' जिनका मोह नष्ट हो चुका है, कलुषता शान्त हो चुकी है और जो समभाव में आरूढ़ हैं ऐसे योगीश्वरोंका आश्रय पाकर हिरणी सिंहके बालकको अपना पुत्र समझ कर स्पर्श करने लगती है, गाय व्याघ्रके बालकको अपना पुत्र समझने लगती है, बिल्ली हंसके बालकको और मयूरी प्रेमके परवश हुए सर्पको स्पर्श करने लगती है....इस प्रकार विरोधी जन्तु मद रहित होकर आजन्मजात वैर भावको छोड़े देते हैं- सबमें परस्पर मैत्रीभाव हो जाता है । कहनेका तात्पर्य यह है कि जिनकी आत्मा राग, द्वेष, मोहसे रहित हो जाती है उनके सान्निध्य में क्रूरसे क्रूर जीव भी शान्तभावको प्राप्त हो जाते हैं, इसमें आश्चर्यकी क्या बात है, क्योकि आत्माका स्वभाव अशान्त नहीं है । जिस प्रकार जलका स्वभाव शीतल है, परन्तु अग्निका निमित्त पाकर गर्म हो जाता है और अग्निका निमित्त दूर होते ही पुनः शीतल हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा स्वभाव से शान्त है, परन्तु कर्मकलड् कका निमित्त पाकर अशान्त हो रहा है। ज्यों ही कर्मकलड ्मकका निमित्त दूर हुआ त्योंही पुनः शान्त हो जाता है। कहनेका अभिप्राय यह है कि यद्यपि सिंहादिक क्रूर जन्तु हैं तो भी उनकी आत्मा शान्त स्वभाववाली है, इसीलिये योगीश्वरों के पादमूलका निमित्त पाकर अशान्ति दूर हो जाती है। योगियोंके पादमूलका आश्रय पाकर उनकी उपादानशक्तिका विकास हो जाता है, अतः मोही जीवोंको उत्तम निमित्त मिलानेकी आवश्यकता है। योगी होना कुछ कठिन बात नहीं । परन्तु हम राग, द्वेष और मोहके वशीभूत होकर निरन्तर अपने-पराये गुण-दोष देखते रहते हैं। वीतराग परिणतिका, आत्माका स्वभाव है, अमल नही करते । यही कारण है कि आजन्म दुःखके पात्र रहते हैं । जिन्होंने राग, द्वेष, मोहको जीत लिया उनकी दशा लौकिक मानवोंसे भिन्न हो जाती है। जैसा कि कहा है | ‘एकः पूजां रचयति नरः पारिजातप्रसूनैः क्रुद्धः कण्ठे क्षिपति भुजंग हन्तुकामस्ततोऽन्यः । तुल्या वृत्तिर्भवति च तयोर्यस्य नित्यं स योगी साम्यारामं विशति परमज्ञानदत्तावकाशम् ।।' 'जिस महानुभाव योगी की ऐसी वृत्ति हो गई है कि कोई तो विनय पूर्वक पारिजातके पुष्पोंसे पूजा कर रहा है और कोई क्रुद्ध होकर मारने की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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