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मेरी जीवनगाथा
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खजराहा के जैन मन्दिर बहुत ही विशाल और उन्नत शिखरवाले हैं। एक मन्दिर में श्रीशान्तिनाथ स्वामी की सातिशय प्रतिमा विराजमान है जिसके दर्शन करनेसे चित्तमें शान्ति आ जाती है। यहाँके मन्दिरोंमें पत्थरोंके ऊपर ऐसी शिल्पकला उत्कीर्ण की गई है कि वैसी कागजपर दिखाना भी दुर्लभ है। मन्दिरके चारों ओर कोट है, बीचमें बावड़ी और कूप है, धर्मशाला है; परन्तु प्रबन्ध नहीं के तुल्य है। क्षेत्रकी रक्षा के लिये न तो कोई भृत्य है न मुनीम। केवल पुजारी और माली रहता है। आस-पास जैनियोंकी संख्या अल्प है। छतरपुरवाले चाहें तो प्रबन्ध कर सकते हैं, परन्तु उनकी इस ओर दृष्टि नहीं। पन्नावालोंको भी इसकी उन्नतिमें कुछ विशेष रुचि नहीं।
यहाँ पर वैष्णवोंके बड़े-बड़े विशाल मन्दिर हैं। फाल्गुनमें एक मासका मेला रहता है। दूर-दूरसे दुकानदार आते हैं। लाखोंका माल बिकता है। महाराज छतरपुर भी मेलामें पधारते हैं।
यहाँसे चलकर तीन दिन बाद पन्ना पहुँच गए। यहाँ पर बाबू गोविन्दलालजी भी आ गये। आप गयाके रहनेवाले हैं। आपको पचहत्तर रुपया पैन्सन मिलती है। आप संसारसे अत्यन्त उदास हैं। आपने गयाके प्राचीन मन्दिरमें हजारों रुपये लगाये हैं। एक हजार रुपया स्याद्वाद विद्यालय बनारसको प्रदान किये हैं और तीन हजार रुपया फुटकर खर्च किये हैं। आपका समय धर्मध्यानमें जाता है। आप निरन्तर सत्समागममें रहते हैं। यहाँ पर हम लोग सिंघई रामरतनके घर पर ठहर गये। आपके पुत्र-पौत्रादि सब ही अनुकूल हैं। आप आतिथ्यसत्कारमें पूर्ण सहयोग देते हैं। हमको पन्द्रह दिन नहीं जाने दिया। हमलोगोंने बहुत कुछ कहा, परन्तु एक न सुनी।
पन्द्रह दिनके बाद चलकर दो दिनमें पड़रिया आये। यहाँ तीन दिन रहना पड़ा। यहाँ सबसे विलक्षण बात यह हुई कि एक आदमी ने यहाँ तक हठ की कि आप हमारे घर भोजन नहीं करेंगे, तो हम अपघात कर लेंगे। अनेक प्रयत्न करने पर यहाँसे निकल पाये और तीन दिनमें सतना पहुँच गये। यहाँ पर बड़े सत्कारसे रहे। लोग नहीं जाने देते थे। अतः सेठ कमलापति और बाबू गोविन्दलालजी को रेलपर भेज दिया और मै सामायिकके मिससे ग्राम के बाहर चला गया और यहीसे रीवाँके लिये प्रस्थान कर दिया। बादमें ठेला, जो कि साथ था, आ गया पचास आदमी तीन मील तक आये। सतनामें सिंघई धर्मदासजी एक रत्न आदमी हैं। आप बहुत ही परोपकारी जीव हैं। तीन दिनमें
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