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________________ गिरिराजकी पैदल यात्रा 325 नास्य लाभोऽभिलाषेऽपि बिना पुण्योदयात्सतः ।। 'जरामृत्युदरिद्रादि न हि कामयते जगत् । तत्संयोगो बलादस्ति सतस्तत्राशुभोदयात् ।। प्राणीमात्र चाहते हैं कि हमारे यश हो, लक्ष्मी हो, पुत्र हो, मित्र हो; किन्तु पुण्योदयके निमित्त न मिलनेपर कुछ नहीं होता और जरा, मरण, दरिद्रता, मूर्खता जगत्में कोई नहीं चाहता, किन्तु पापकर्मके उदयका निमित्त मिलनेपर नहीं चाहनेपर भी इन अनिष्टकारी पदार्थों का संयोग होता है....... इत्यादि बहुत कुछ दृष्टान्त इस विषयमें हैं, फिर भी आपने अपनी प्रजाके कहनेसे हमको अपना शत्रु बलात्कार समझ लिया। मेरे चातुर्मासमें यहीं रहनेका नियम था। मैं स्वेच्छासे अपने नियमका घात न करता। आप मुझे बलात्कार निकाल देते, यह अन्य बात थी। खेद इस बातका है कि पानी बरसनेसे आपने यह विश्वास कर लिया कि यह करामात पाण्डेजीकी है। यह भी आपकी धारणा मिथ्या है। यदि मैं इस बरसानेमें कारण हुआ तो मैं स्वयं विधाता हो गया। 'सुनहु भरत भावी प्रबल विलख कही मुनिनाथ । हानि लाभ जीवन मरण जश अपजश विधिहाथ ।' अतः इस भ्रान्तिको छोड़ो कि जल बरसानेमें मेरा अतिशय है। मैं भी कर्माक्रान्त हूँ | जैसी आपकी अवस्था है वैसी ही मेरी अवस्था है। इतना अन्तर अवश्य है कि आपकी श्रद्धा डवाँडोल (चञ्चल) है और मेरी श्रद्धा अचल है। आप अपने व्यवहारसे लज्जित न हों। मैं आपको न तो मित्र मानता हूँ और न शत्रु ही। मेरे कर्मका विपाक था, जिससे आपने शत्रु-मित्र जैसा काम किया। महाराज बोले-'ठीक है, ऐसा ही होना था। अब इस विषय में अधिक चर्चा करनेकी आवश्यकता नहीं। मैं आपसे प्रसन्न हूँ और मेरी आजसे यह घोषणा है कि जैनका जब रथ निकले तब उसे आवश्यक बाह्य सामग्री राज्यसे दी जावें। इसके बाद पाण्डेजीने सर्वशान्तिके लिये शान्ति-विधान किया। कहनेका अभिप्राय यह है कि पहले इस प्रकार के निर्भीक और गुणी मनुष्य होते थे। यहाँ तीन दिन रहकर खजराहा क्षेत्र के लिये चल दिये। बीचमें दो दिन रहकर तीसरे दिन खजराहा पहुँच गये। :५: Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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