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________________ 324 है । मुझमें क्या किसीमें यह सामर्थ्य नहीं । जीवन-मरण, सुख-दुःख प्राणियोंके पुण्य-पापके अनुसार होते हैं। तथाहि 'सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीय मेरी जीवनगाथा कर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् । अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य कुर्यात्पुमान् मरणजीवितदुःखसौख्यम् । इस लोकमें जीवोंके जो मरण-जीवन सम्बन्धी दुःख-सुख हैं वे सदा-काल नियमपूर्वक अपने-अपने कर्मोदयसे होते हैं। ऐसा होने पर भी जो मनुष्य परके मरण, जीवन, सुख और दुःखका कर्ता अपनेको मानता है वह अज्ञान है। अन्यच्च - 'अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम् । कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवन्ति ।।' 1 पूर्व कथित अज्ञानको प्राप्त होकर जो परसे परको सुख-दुख एवं जीवन-मरण देखते हैं वे अहंकार रसके द्वारा करनेके इच्छुक जीव नियमसे मिथ्यादृष्टि होते हैं और नियमसे आत्मघाती होते हैं । संसारमें जीवन, मरण, सुख और दुःख जो कुछ भी जीवों के देखा जाता है वह सब स्वकृत कर्मोके उदयसे होता है। उनका जो अपनेको कर्ता मानते हैं । अर्थात् उनमें राग-द्वेष करते हैं वे अज्ञानी हैं। जैसे कोई असावधानी से बिना देखे मार्ग चल रहा है उसे अकस्मात् पत्थरकी चोट लग गई तो वह पत्थरको इस भावनासे तोड़ने लगा कि यदि यह पत्थर मार्गमें न होता तो मुझे चोट न लगती। पर वह यह नहीं सोचता कि यदि मैं देखकर चलता तो यह चोट न लगती । और भी कहा | है कि Jain Education International वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा । ये सब गुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुरा कृतानि ।' जब कि वस्तुकी मर्यादा ही ऐसी है तब अन्य पर रोष करना कहाँ का न्याय है ? संसार में कौन मनुष्य चाहता है कि मैं धनी न होऊँ, विद्वान् न होऊँ, राजा न होऊँ परन्तु होना अपने अधीनकी बात नही है। जैसा कि कहा है'यशः श्रीसुतमित्रादि सर्व कामयते जगत् । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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