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गिरिराजकी पैदल यात्रा
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एक बार ग्राममें आकर भोजन करते है। पश्चात् फिर वनमें चले जाते हैं। सबसे मैत्रीभाव रखते हैं। वे तो यहाँ नहीं। यह जो हैं भट्टारकके शिष्य हैं, परन्तु वे भी बड़े शिष्ट हैं, विद्वान् है, दयालु हैं, सदाचारकी मूर्ति हैं, परिमित परिग्रह रखते हैं, जैनियोंके यहाँ भोजन करते हैं, किसीसे याचना नहीं करते, मेरा उनके साथ स्नेह है, निरन्तर उनके मुखसे आप लोगोंके हित पोषक वचन ही सुननेमें आते हैं। वो निरन्तर कहते रहते हैं कि महाराज ! ऐसा नियम बनाइये कि जिससे राज्यभरमें सदाचारकी प्रवृत्ति हो जाय। आप सदा मद्य, मांस, मधुके त्यागका उपदेश करते हैं। अनाचार रोकनेके लिये उनका कहना है कि बाजारू औरतें शहर में न रहें। उनकी आजीविकाके लिये कोई कलाभवन बना दिया जावे। मुझे भी निरन्तर यही उपदेश देते हैं कि महाराज आप प्रजापति हैं और चूँकि पशु भी आपकी प्रजा है, अतः इनका भी घात न होना चाहिये। इसलिये आप लोग इनके निकालने का प्रस्ताव वापिस ले लीजिये....... ।' महाराजने बहुत कुछ कहा, परन्तु समुदायने एक नहीं सुनी और कहा-तो हमको आज्ञा दीजियें, हम ही चले जावें।"
महाराज ने कहा-'खेद है कि लोगोंके आग्रहसे आज मुझे एक निरपराध व्यक्तिको राज्यसे बाहर जानेकी आज्ञा देकर न्यायका घात करना पड़ रहा है। पर दरवानसे कहा कि पाण्डेजीसे कह दो-'महाराज ! आप मेरा राज्य छोड़कर अन्य स्थानमें चले जाइयें। आपके रहने से हमारी प्रजामें क्षोभ रहता है।'
दरवान पाण्डेजीके पास गया और कहने लगा कि 'महाराज ! आपको राजाज्ञा है कि राज्य से बाहर चले जाओं।' पाण्डेजीने कहा कि- 'महाराजसे कह दो कि आपकी आज्ञाका पालन होगा, परन्तु आप एक बार मुझसे मिल जावें ।' दरवानने आकर महाराजको पाण्डेजीका सन्देश सुना दिया। महाराजने पाण्डेजीके पास जाना स्वीकृत कर लिया।
पाण्डेजीने दरवानके बाद मन्त्रराजका आराधन किया। महाराज जब पाण्डेजीके यहाँ आने को उद्यत् हुए तब कुछ-कुछ बादल उठे और जब उनके पास पहुंचे तब अखण्ड मूसलाधार वर्षा होने लगी। आपका जब पाण्डेजीसे समागम हुआ तब आपने बहुत ही प्रसन्नता प्रकट की और कहा कि'महाराज ! मैं अपनी आज्ञा वापिस लेता हूँ। पाण्डेजी बोले-'आपकी इच्छा, परन्तु आपने प्रजाके कहे अनुसार राज्य से बाहर जानेकी आज्ञा तो दे ही दी थी। यह तो विचारना था कि मैं कौन हूँ। क्या मुझमें पानी रोकनेकी सामर्थ्य
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