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मेरी जीवनगाथा
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सादर बुलाते थे। महाराज छतरपुरने तो आपको अनेक बार बुलाया था। छतरपुरमें जैनियोंकी बड़ी प्रतिष्ठा थी।
गाँवके बाहर एक टेहरी पर पाण्डेजीका मन्दिर है। आजकल वहाँ हिन्दी नार्मल स्कूल है। यहाँ पर मन्दिरोंमें विशाल मूर्तियोंकी न्यूनता नहीं है, परन्तु आजकल शास्त्र-प्रवचन भी नहीं होता। यहाँ पर पं० हीरालालजी एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। आप चाहें तो समाजका बहुत कुछ उपकार कर सकते हैं, परन्तु आपका लक्ष्य इस ओर नहीं। प्रथम तो संसारमें मनुष्यजन्म मिलना अतिकठिन है। फिर मनुष्यजन्म मिलकर योग्यताकी प्राप्ति अतिदुर्लभ है। योग्यताको पाकर जो स्वपरोपकार नहीं करते वे अत्यन्त मूढ़ हैं......यह लिखना आपेक्षिक है। यावत्प्राणी हैं, सब अपने-अपने अभिप्राय से प्रवृत्ति करते हैं, किन्तु इतना अवश्य मानना पड़ेगा कि जिस क्रिया के करनेसे अपनी आत्माको कलुषताका सामना करना पड़े तथा धक्का पहुंचे वह कार्य करना अवश्य हेय है। संसार है, इसमें जो न हो वह अल्प है।
यहाँसे चलकर एक दिन एक राजधानीमें आया। उसका नाम नहीं लिखना चाहता। यहाँ भट्टारकके शिष्य थे जो बहुत ही योग्य एवं विद्वान् थे। आपका राजाके साथ मैत्रीभाव था। एक वर्षाकालमें पानीका अकाल पड़ा, खेती सूखने लगी। प्रजामें त्राहि-त्राहि मच गई। प्रजागणने राजासे कहा-'महाराज ! पानी न बरसनेका कारण यह है कि यहाँ पर जैनगुरु भट्टारकका एक चेला रहता है, वह ईश्वरको सृष्टिकर्ता नहीं मानता, परमात्मा निखिल जगतका नियन्ता है, उसीकी अनुकम्पासे विश्वके प्राणी सुखके पात्र होते हैं। उसीकी अनुकम्पासे प्राणी अनेक आपत्तियों से सुरक्षित रहते हैं। अतः उस भट्टारकके शिष्यको यहाँसे निकाल दीजिये जिससे देशव्यापी आपत्ति टल जावे।" राजाने कहा-यह तुम लोगोकी भ्रान्ति है। मनुष्योंके पुण्य-पापके आधीन सुख-दुःख होता है। भगवान् तो सिर्फ साक्षीभूत हैं। अथवा कल्पना करो कि भगवान् ही कर्ता हैं, परन्तु फल तो जैसा हम लोग पुण्य-पाप करेंगे वैसा ही होगा। जैसे हम राजा हैं। हमारी प्रजामें जो चोरी करेगा उसे हम चोरी करनेका दण्ड देवेंगें। यदि चोरी करनेवालेको दण्ड न दिया जायगा तो अराजकता फैल जावेगी। इसी तरह ईश्वरको मान लो । जैनगुरुके रहनेसे पानी नहीं बरसा, यह आप किस आधारसे कहते हैं। विवेकसे बात करना चाहिए। आप लोग जानते हैं कि जैनियोंके साधु दिगम्बर होते हैं। ग्रामके बाहर रहते हैं। चौबीस घण्टेमें
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