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मेरी जीवनगाथा
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पीठ दे दी है और सिमरियाके सम्मुख हो गये हैं। इससे चार सौ निन्यानवे मील दूर होनेपर भी नजदीक है। इसी प्रकार आप गिरिराजके सम्मुख हैं, अतः वह नजदीक है और बरुआसागर दूर है। उसके इस वाक्यको सुनकर मेरे में स्फूर्ति आ गई और मैंने यह प्रतिज्ञा की-'हे प्रभो पार्श्वनाथ ! मैं आपकी निर्वाणभूमि के लिए प्रस्थान कर रहा । जब तक मुझमें एक मील भी चलने की सामर्थ्य रहेगी तबतक पैदल चलूँगा, डोलीमें नहीं बैलूंगा।' प्रतिज्ञाके बाद ही एकदम चलने लगा और आध घण्टामें निवारी पहुँच गया। यहाँ पर एक जैन मन्दिर और चार घर जैनियोंके हैं। रात्रिभर रहा। प्रातःकाल भोजन करके मगरपुर के लिए चल दिया।
यहाँ पर एक गहोई वैश्य आये। उन्होंने कहा 'आप थोड़ी देर मेरी बात सुनकर जाइयें।' मैं रूक गया। आप बोले-मैं एक बार श्रीजगन्नाथजीकी यात्राके लिये जाने लगा तो मेरी माँ बोली-'बेटा ! तुम्हारे बापने अमुक आदमीका ऋण लिया था। वह उसे अदा न कर सके, उसका मरण हो गया। अब तुम पहले उसे अदा करो फिर यात्राके लिए जाओं, अन्यथा यात्रा सफल न होगी। मैने माँकी आज्ञाका पालन किया और उस साहूकारके पास गया। साहूकारसे मैंने कहा-भाई ! आपका जो रुपया मेरे बापके नामपर हो ले लीजिये। साहूकारने कहा- मुझे नहीं मालूम कितना कर्ज है। मेरे बापने दिया होगा, मैं क्या जानूँ ? जब मैंने बहुत आग्रह किया तब उसने बही निकाली। मैंने मेरे बाप के नामपर जो रुपया निकला वह मय ब्याजके अदा किया। साहूकारने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उतना ही रुपया मिलाकर एक मन्दिरमें लगा दिया। यह उस जमानेकी बात है। पर अब यह जमाना आ गया, कि रुपया वसूल करने में अदालतका आश्रय लेना पड़ता है और अन्तमें कलिकाल कहकर सन्तोष करना पड़ता है । अस्तु, आपसे मेरी यही प्रार्थना है कि आप जहाँ जावें वहाँ यह उपदेश अवश्य देवें कि पराया ऋण अदा करके ही तीर्थयात्रा आदि धार्मिक कार्य करें। मैंने कहा अच्छा। उसने कहा-'अब आप सानन्द जाइये।
: ४: मै वहाँसे चलकर मगरपुर पहुँच गया। यहाँ दो जैन मन्दिर और दस धर जैनियों के हैं। यहाँ अडकू सिंघईजीके यहाँ ठहरा । आप स्वर्गीय बाईजीके चचेरे भाई थे। बड़े आदरसे तीन दिन रक्खा। चलते समय सप्रेम एक मील तक पहुँचाने के लिये आये। जब मैं चलने लगा तब आपका हृदय भर आया।
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